________________ तेरहवां उद्देशक] [299 63. जो भिक्षु असंयतों के प्रारम्भ-कार्यों का निर्देशन करने वाले की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-चौथे उद्देशक में सूत्र 39 से 48 तक पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और नित्यक भिक्षु को अपना साधु देने तथा लेने के व्यवहार का प्रायश्चित्त कहा गया है / वहां पर भाष्य गाथा 1828 तथा 1832 में 'पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील' यह क्रम स्वीकार किया गया है / उन सूत्रों की चूणि में भी यही क्रम है। किन्तु इस उद्देशक के भाष्य और चूणि में 'पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न' यह क्रम स्वीकार करके विस्तृत विवेचन किया है। चौथे उद्देशक से इसमें क्रम भेद क्यों है इस विषय की कोई भी चर्चा नहीं की गई है / अतः इस उद्देशक के भाष्यानुसार ही सूत्रों का क्रम रखा है। प्रस्तुत प्रकरण में पार्श्वस्थ ग्रादि नव के अठारह सूत्र हैं। इनमें प्रत्येक को वन्दन करने का या उसकी प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त कहा गया है / 'अवन्दनीय कौन होता है ?' इसका भाष्य गाथा 4367 में स्पष्टीकरण किया गया है--- "मूलगुण उत्तरगुणे, संथरमाणा वि जे पमाएंति / ते होतऽवंदणिज्जा, तहाणारोवणा चउरो॥" अर्थ-जो सशक्त या स्वस्थ होते हुए भी अकारण मूलगुण या उत्तरगुण में प्रमाद करते हैं अर्थात् संयम में दोष लगाते हैं, पार्श्वस्थ आदि स्थानों का सेवन करते हैं वे अवन्दनीय होते हैं। उन्हें वन्दन करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / अर्थात् जो परिस्थितिवश मूलगुण या उ गुण में दोष लगाते हैं वे अवन्दनीय नहीं होते हैं। वन्दन करने या नहीं करने के उत्सर्ग, अपवाद की चर्चा सहित विस्तृत जानकारी के लिये आवश्यकनियुक्ति गा. 1105 से 1200 तक का अध्ययन करना चाहिये। प्रस्तुत सूत्र की चूर्णि में भी अपवाद विषयक वर्णन इस प्रकार है"वंदण विसेस कारणा इमे--- परियाय परिस पुरिसं, खेत कालं च आगमं गाउं / कारण जाते जाते, जहारिहं जस्स जं जोग्गं / वायाए-णमोक्कारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च / संपुच्छणं, अच्छणं, छोभ वंदणं, वंदणं वा / एयाइं अकुव्वंतो, जहारिहं अरिह देसिए मगे। न भवइ पवयण भत्ति, अभत्तिमंतादिया दोसा // गा. 4372-74 भावार्थ-दीक्षा पर्याय, परिषद्, पुरुष, क्षेत्र, काल, आगम ज्ञान प्रादि कोई भी कारण को जानकर चारित्र गुण से रहित को भी यथायोग्य 'मत्थएण वंदामि' बोलना, हाथ जोड़ना, मस्तक झुकाना सुखसाता पूछना आदि विनयव्यवहार करना चाहिये। क्योंकि अरिहंत भगवान् के शासन में रहे हुए भिक्षु को उपचार से भी यथायोग्य व्यवहार न करने पर प्रवचन की भक्ति नहीं होती है, किन्तु अभक्ति ही होती है तथा अन्य भी अनेक दोष होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org