________________ तेरहवां उद्देशक [295 39. जे भिक्खू फाणिए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा साइज्जइ / 40. जे भिक्खू मज्जए अप्पाणं देहइ, देहतं वा साइज्जइ / 41. जे भिक्खू वसाए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा साइज्जइ / 31. जो भिक्षु पात्र में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 32. जो भिक्षु अरीसा में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है। 33. जो भिक्षु तलवार में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 34. जो भिक्षु मणि में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 35. जो भिक्षु कुडे आदि के पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 36. जो भिक्षु तेल में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 37. जो भिक्षु मधु (शहद) में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 38. जो भिक्षु घी में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है। __ 39. जो भिक्षु मीले गुड़ में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 40. जो भिक्षु मद्य में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है / 41 जो भिक्षु चरबी में अपना प्रतिबिम्ब देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन यहाँ बारह सूत्रों से बारह पदार्थों में अपना प्रतिबिम्ब देखने का प्रायश्चित्त कहा है। पात्र शब्द से साधु के पात्रों का एवं गृहस्थ के बर्तनों का कथन है। सूत्र में कहे गये तेल, घी, गुड़ भिक्षा में ग्रहण किये हुए हो सकते हैं / मधु, वशा कभी औषध निमित्त से ग्रहण किये हुए हो सकते हैं। अन्य तलवार, अरीसा, मद्य आदि साधु ग्रहण नहीं करता है किन्तु भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर वहाँ उनमें मुख देखना सम्भव हो सकता है। भाष्य में सूत्रगत शब्दों का संग्रह इस प्रकार किया है "दप्पण मणि आभरणे, सत्थ दए भायणऽन्नतरए य / तेल्ल-महु-सप्पि-फाणित, मज्ज-वसा-सुत्तमादीसु // 4318 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org