________________ बारहवां उद्देशक] [281 विलेपन के पदार्थ गुण की अपेक्षा चार प्रकार के होते हैं-- 1. वेदना को उपशांत करने वाले, 2. फोड़े आदि को पकाने वाले, 3. पीव व खून बाहर निकाल देने वाले, 4. घाव भर देने वाले / गृहस्थ से उपधि वहन कराने का प्रायश्चित्त 42. जे भिक्खू अण्ण्उत्थिएण वा गारथिएण वा उहि वहावेइ, वहावेतं वा साइज्जइ / 43. जे भिक्खू तन्नीसए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, देतं वा साइज्जइ / 42. जी भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ से अपनी उपधि (सामान) वहन कराता है या वहन कराने वाले का अनुमोदन करता है / 43. जो भिक्षु भार वहन कराने के निमित्त से उसे अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-भिक्षु को अत्यन्त अल्प उपधि रखने का आगम में विधान है। जिनको भिक्षु स्वयं सहज ही उठाकर विहार कर सकता है। उपधि सम्बन्धी विस्तृत विवेचन सोलहवें उद्देशक के सूत्र 39 में देखें। शारीरिक अस्वस्थता के कारण रखे गये उपकरण अधिक हो जाने से अथवा शास्त्र आदि का वजन अधिक हो जाने से गृहस्थ से वहन कराने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त प्राता है। विधि के अनुसार रुग्ण साधु की उपधि अन्य स्वस्थ साधु उठा सकता है। गृहस्थ को साथ रखना व सामान उठवाना संयम की विधि नहीं है / गृहस्थ के चलने आदि प्रवृत्तियों में जो भी सावद्य कार्य होता है उसका पापबंध अनुमोदन रूप में साधु को भी होता है / कदाचित् वह उपधि गिरा दे, तोड़-फोड़ दे, अयोग्य स्थान में रख दे या लेकर भाग जाय तो असमाधि उत्पन्न होती है। भार अधिक होने से अथवा चलने से उस गहस्थ को परिताप उत्पन्न होता है / श्रम के कारण यदि वह रुग्ण हो जाए तो औषध उपचार करना कराना आदि अनेक दोषों की परम्परा का होना संभव रहता है। गृहस्थ को मार्ग में प्राहार का संयोग न मिलने पर भिक्षु के संकल्पों को वृद्धि होती है अथवा वह अपने गवेषणा करके लाये आहार में से उसे देता है तो दूसरे सूत्र के अनुसार वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। भारवाहक मजदूरी लेना चाहे तो उस निमित्त से अपरिग्रह महाव्रत के सम्बन्ध में दोषोत्पत्ति होती है। उसे ग्राहार देने पर दानदाताओं को ज्ञात हो जाने पर साधु के प्रति अप्रीति व दान की भावना में कमी आ सकती है। अत: भिक्षु को इतनी ही उपधि रखनी चाहिये जिसे वह स्वयं उठा सके। परिस्थितिवश भी कभी अधिक उपधि रखना व गृहस्थ से उठवाना पड़े तो अन्य आवश्यक सावधानियां रखे और सूत्रोक्त प्रायश्चित्त भी स्वीकार करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org