________________ 264] [निशीघसूत्र गृहस्थ की निषधा के उपयोग करने का प्रायश्चित्त-- 12. जे भिक्खू गिहि-णिसेज्जं वाहेइ, वाहेंतं वा साइज्जइ / 12. जो भिक्षु गृहस्थ के पर्यकादि पर बैठता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-गृहस्थ के खाट-पलंग आदि अनेक प्रकार के अप्रतिलेख्य या दुष्प्रतिलेख्य प्रासन होते हैं / गृहस्थ के घर गोचरी आदि के लिए गये हुए भिक्षु को वहाँ बैठने का तथा पल्यंक आदि पर शयन करने का दशवै. अ. 6 में निषेध किया गया है तथा उन्हें ही दशवै. अ. 3 में अनाचार कहा है / दशवै. अ. 6 में गृहस्थ के घर में बैठने से होने वाले दोषों का भी कथन है और वृद्ध, व्याधिग्रस्त तथा तपस्वी को वहाँ बैठना कल्पनीय कहा है। किन्तु खाट-पलंग आदि पर बैठने का सभी के लिए निषेध किया है / इसका ही प्रस्तुत सूत्र में प्रायश्चित्त कहा गया है। सूत्र 6 में अनेक प्रकार के पीठ-बाजोट आदि का वर्णन है, उन पर गृहस्थ का वस्त्र न हो तो बैठने पर उस सूत्र के अनुसार प्रायश्चित्त नहीं पाता है / इस प्रकार गृहस्थ के आसन पल्यंक आदि काष्ठ आदि के हों और वे सुप्रतिलेख्य हों तो साधु उन्हें “पडिहारी" ग्रहण कर सकता है और उपयोग में ले सकता है / यदि कुर्सी आदि अालंबनयुक्त आसन हों तो साधु ग्रहण करके उपयोग में ले सकता है किन्तु साध्वी को प्रालंबनयुक्त शय्या प्रासन ग्रहण करने का बृहत्कल्प उ. 5 में निषेध किया है। . उत्तरा. अ. 17 गा. 19 में गृहि-निषद्या पर बैठने वाले को 'पाप श्रमण' कहा गया है / सूय. सु. 1 अ. 9 गा. 21 में आसंदी, पल्यंक आदि पर बैठने का निषेध किया गया है। अतः भिक्षु को गृहस्थ के इन आसनों पर नहीं बैठना चाहिए। गृहस्थ को चिकित्सा करने का प्रायश्चित्त 13. जे भिक्खू गिहि-तेइच्छं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ / 13. जो भिक्षु गृहस्थ की चिकित्सा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन—गृहस्थ को रोग उपशांति के लिए औषध-भेषज बताना या अन्य भी किसी प्रकार की शल्यचिकित्सा आदि करना साधु को नहीं कल्पता है / उत्तरा. अ. 15 गा. 8 में अनेक प्रकार की चिकित्सा करने का निषेध किया गया है। दशवै. चूलिका 2 में कहा है कि-'भिक्षु गृहस्थ की वैयावृत्य नहीं करे।' दशवै. अ.८ गा. 51 में गृहस्थ को औषध-भेषज बताने का निषेध किया है / दशवै. अ. 3 गा. 6 में गृहस्थ की वैयावृत्य करना अनाचार कहा है। दशवै. अ. 3 गा. 4 में गृहस्थ की चिकित्सा (वैद्यवृत्ति) करना अनाचार कहा है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org