________________ बारहवां उद्देशक] [265 चिकित्सा करने के दोष--- 1. अनेक चिकित्सायों में सावद्य-प्रवृत्ति की जाती है, 2. सावद्य-सेवन की प्रेरणा दी जाती है, 3. निर्वद्य चिकित्सा से भी किसी का रोग दूर हो जाय तो अनेक लोगों का आवागमन बढ़ सकता है, 4. चिकित्सा से कभी किसी के रोग की वृद्धि हो जाय तो अपयश होता है, इत्यादि दोषों के कारण भिक्षु को गृहीचिकित्सा करने का प्रस्तुत सूत्र में प्रायश्चित्त कहा गया है। आचा. श्रु. 1 अ. 2 उ. 5 में कहा है कि चिकित्सा-वैद्यवृत्ति करने में हनन आदि अनेक प्रवृत्तियाँ भी की जाती हैं, अत: भिक्षु व्याधि-चिकित्सा का प्रतिपादन न करे। इन सूत्रोक्त विधानों को जानकर भिक्षु को गृही-चिकित्सा में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये / परिस्थितिवश कभी चिकित्सा प्रयोग किया जाय तो सूत्रोक्त प्रायश्चित ग्रहण कर लेना चाहिये / पूर्व-कर्म-कृत आहार-ग्रहण-प्रायश्चित्त 14. जे भिक्खू पुरेकम्मकडेण हत्येण वा, मत्तेण वा, दविएण वा, भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 14. जो भिक्षु पूर्व-कर्मदोष से युक्त हाथ से, मिट्टी के बर्तन से, कुडछी से, धातु के बर्तन से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन--भिक्षु को आहार देने के पूर्व गृहस्थ हाथ धोए या कुडछी, कटोरी आदि धोए तो वह हाथ या कुडछी आदि पूर्वकर्मदोषयुक्त कहे जाते हैं। उनसे भिक्षा लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि उनके धोने में अप्काय व सकाय आदि को विराधना होती है / __कई कुलों में ऐसी परिपाटी होती है कि वे हाथ धोकर भोजन सामग्री का स्पर्श करते हैं, कई शुद्धि के संकल्प से बर्तन को धोकर उससे भिक्षा देना चाहते हैं अथवा हाथ या बर्तन के लगे हुये पदार्थ को धोकर भिक्षा देना चाहते हैं। अतः गोचरी करने वाला विचक्षण भिक्षु दाता के ऐसे भावों को अनुभव से जानकर पहले से ही हाथ आदि धोने का निषेध कर दे। निषेध करने के पहले या पीछे भी हाथ आदि धोकर दे तो अशनादि ग्रहण नहीं करना चाहिये। आचा. श्रु. 2 अ. 1 उ. 6 में इस विषय का विस्तृत वर्णन है। यह दोष एषणा के 'दायक' दोषों में समाविष्ट होता है / दशव. अ. 5 उ. 1 गा. 32 में भी पूर्वकर्मकृत हाथ आदि से भिक्षा लेने का निषेध किया गया है। यदि दाता किसी बर्तन में रखे अचित्त पानी से हाथ कुड़छी आदि को धोए तो पूर्वकर्मदोष नहीं लगता है किन्तु सचित्त जल से धोए या अचित्त जल से भी बिना विवेक के धोए तो पूर्बकर्मदोष लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org