________________ 252] [निशीयसूत्र सरोम चर्म के अन्दर पोल होने से भाष्यकार ने यहाँ अन्य भी पोल युक्त पुस्तक, तृण आदि का विस्तृत वर्णन किया है / जिसका सारांश इस प्रकार है-- 1. पुस्तकपंचक, 2. तृणपंचक, 3. दुष्प्रतिलेख्य वस्त्रपंचक, 4. अप्रतिलेख्य वस्त्रपंचक, 5. चर्मपंचक / 1. पुस्तकपंचक-.. 1. मंडी पुस्तक-चौड़ाई, मोटाई में समान अर्थात् चौरस लंबी पुस्तक / 2. कच्छपी पुस्तक-बीच में चौड़ी, किनारे कम चौड़ी, अल्प मोटाई वाली। 3. मुष्टि पुस्तक-चार अंगुल विस्तार में वृत्ताकार गोल अथवा चार अंगुल लंबी-चौड़ी समचौरस / 4. संपुट-फलक पुस्तक---वृक्ष आदि के फलक से निर्मित पुस्तक / 5. छेदपाटी पुस्तक-ताड़ आदि के पत्तों से बनी पुस्तक, कम चौड़ी तथा लम्बाई व मोटाई में अधिक एवं बीच में एक, दो या तीन छिद्र वाली। ___ ये सभी पुस्तकें झुषिर [पोलार] युक्त होने से दुष्प्रतिलेख्य हैं, अतः अकल्पनीय हैं। 2. तुणपंचक 1. शालि, 2. नीहि, 3. कोद्रव, 4. रालक [ कंगु] ये चार पराल रूप तृण और 5. पारण्यक-जंगली श्यामाकादि तृण / ये भी पोल युक्त होते हैं। इन तृणों का वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र अ. 23, गा. 17 में इस प्रकार है-- "पलालं फासुयं तत्थ, पंचमं कुस तणाणि य / गोयमस्स निसिज्जाए, खिप्पं संपणामए // " टोका-गोयमस्य उपवेशनार्थ प्रासुकं---निर्बीजं चतुविधं पलालं, पंचमानि कुशतृणानि, चकारात् अन्यान्यपि साधुयोग्यानि तृणानि समर्पयति / इस गाथा में इन्हें प्रासुक कहा है / इन्हीं पांच को भाष्यकार ने पोल युक्त होने से दुष्प्रतिलेख्य कहा है और उसका लघुचौमासी प्रायश्चित्त भी कहा है / इन परालों का पोल युक्त होना प्रत्यक्षसिद्ध है, फिर भी उक्त गाथा में इन्हें प्रासुक कहा है। इसका कारण यह है कि गृहस्थ के उपयोग में आ जाने से वे प्रासुक हो जाते हैं / आगम युग में पराल, दर्भ आदि का उपयोग साधु व श्रावक दोनों ही करते थे, ऐसा वर्णन अनेक आगमों में उपलब्ध है / वर्तमान में इनका उपयोग बहुत कम हो गया है। 3. दुष्प्रतिलेख्य वस्त्रपंचक 1. कोयवि-रूई लगे हुए वस्त्र / २.प्रावारक-ऊन लगे हुए नेपाल आदि के बड़े कम्बल / 3. दाढिगालि–दशियों अर्थात् फलियों युक्त वस्त्र / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org