________________ 258] [निशीथसूत्र अपकाय की विराधना के स्थान 1. गोचरी में-१. उदका हाथ आदि से, 2. सस्निग्ध हाथ आदि से, 3. पूर्वकर्मदोष से, 4. पश्चात्कर्मदोष से और 5. जल का स्पर्श आदि करने वाले दाता से भिक्षा ग्रहण करने पर अप्काय की विराधना होती है। 2. मार्ग में--१. नदी, नाला, तालाब आदि के पानी में, 2. भूमि पर ओस, धूअर और वर्षा के पड़े हुए पानी में, 3. मार्ग में गिरे हुए पानी पर चलने से या किसी अन्य के रखे हुए या फेंके जाते हुए पानी का स्पर्श आदि होने से अप्काय की विराधना हो जाती है। विहार में कभी जंघासंतारिम या नावासंतारिम पानी को पार करके जाने में भी अप्काय की विराधना हो जाती है। उपयुक्त स्थानों में पानी के सूक्ष्म अंश का अस्तित्व रहे तब तक वह सचित्त रहता है। मार्ग में गिरे हुए पानी की स्निग्धता समाप्त हो जाने पर अर्थात् पृथ्वी में पानी के पूर्णतया विलीन हो जाने पर वह अचित्त हो जाता है। नदी, तालाब आदि का पानी पूर्णतया सूख जाने पर उसमें अप्काय के जीव तो नहीं रहते हैं किन्तु वहाँ कुछ समय तक पृथ्वीकाय की सचित्तता रहती है / अग्निकाय की विराधना के स्थान 1. गोचरी में- अग्नि के अनंतर या परम्पर स्पर्श करती हुई वस्तु लेने से या अग्नि पर रखी हुई वस्तु लेने से अथवा भिक्षा देने के निमित्त दाता द्वारा किसी प्रकार से अग्नि का प्रारंभ करने पर अग्निकाय की विराधना हो जाती है / 2. उपाश्रय में-अग्नि या दीपक युक्त स्थान में ठहरना भिक्षु की नहीं कल्पता है / किन्तु अन्य स्थान के न मिलने पर एक या दो दिन वहां ठहरना कल्पता है। –बृहत्कल्प उ. 2 भिक्षु कभी परिस्थितिवश ऐसे स्थान में ठहरा हो तो वहाँ उसके प्रतिलेखन, प्रमार्जन, गमनागमन अादि क्रियाएँ करते हुए असावधानी से अग्निकाय की विराधना हो जाती है / वायुकाय को विराधना के स्थान 1. किसी भी उष्ण पदार्थ को शीतल करने के लिए हवा करने से वायुकाय की विराधना हो जाती है / 2. गर्मी के कारण शरीर पर किसी भी साधन से हवा करने पर वायुकाय की विराधना हो जाती है / भाष्यकार ने यह भी बताया है कि गृहस्थ के लिये संचालित हवा में बैठना अथवा खुले स्थान में जाकर "हवा आवे" इस प्रकार का संकल्प करना भी वायुकाय की विराधना का प्रकार है। 3. प्रतिलेखन आदि संयम की आवश्यक प्रवृत्ति करने में, शरीर और उपकरण के अनेक (परिकर्म) कार्य करने में, चलना, खड़े होना, बैठना, सोना, बोलना या खाना तथा कोई भी वस्तु रखने, उठाने या परठने में हवा की उदीरणा करते हुए अयतना से ये कार्य करने पर वायुकाय को विराधना होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org