________________ ग्यारहवां उद्देशक [223 धर्म की निंदा करने का प्रायश्चित्त 7. जे भिक्खू धम्मस्स अवण्णं वयइ, वयंतं वा साइज्जइ / 7. जो भिक्षु धर्म की निंदा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन--धर्म दो प्रकार का है 1. श्रुतधर्म, 2. चारित्रधर्म / 1. श्रुतधर्म-ग्यारह अंग, पूर्वज्ञान और आवश्यकसूत्र एवं इनके अर्थ तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय की निंदा करना अथवा उसे "अयुक्त” कहना "श्रुतधर्म" का अवर्णवाद है / यथा (1) छह काया आदि जीवों का, महाव्रत आदि प्राचार का तथा प्रमाद-अप्रमाद का अनेक स्थलों में बार-बार कथन किया गया है, वह अयुक्त है। (2) वैराग्य से प्रवजित होने वाले भिक्षत्रों को ज्योतिष वर्णन, 'जोणिपाहुड' व निमित्तवर्णन से क्या प्रयोजन है ? अतः इनके वर्णन की पागम में भी क्या आवश्यकता है ? (3) सभी पागम एक अर्धमागधी भाषा में ही हैं, यह ठीक नहीं है। अलग-अलग भाषा में होने चाहिये। इत्यादि प्रकार से श्रुत की आसानता करना श्रुतधर्म की निदा है। 2. चारित्रधर्म-श्रावक-धर्म अथवा साधु-धर्म के आचार-नियमों के मूलगुणों या उत्तरगुणों के विषय में निंदा करना, उन्हें “अयुक्त' कहना चारित्रधर्म का अवर्णवाद है / यथा (1) जीवरहित स्थान हो तो प्रतिलेखन करना निरर्थक है। (2) सम्पूर्ण लोक जीवों से व्याप्त है तो गमनागमन आदि क्रिया करते हुए निर्दोष चारित्र कैसे रह सकता है ? (3) प्रत्येककाय-एकेन्द्रिय के संघट्टन मात्र का लघुमासिक प्रायश्चित्त देना इत्यादि अल्प अपराध में उग्र दंड देना अयुक्त है / (4) अपवाद में मोकाचमन (मूत्रप्रयोग) का कथन भी अयुक्त है। (5) आधाकर्म दोष युक्त आहार गृहस्थ ने बना ही दिया तो फिर लेने में साधु को क्या दोष है, इत्यादि / यह चारित्रधर्म की निंदा है / श्रुतधर्म या चारित्रधर्म की निंदा करने से उसे सुनकर मंदबुद्धि साधक साधना से च्युत हो सकते हैं / निंदा करने वाला ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों का बंध करके दुर्लभबोधि होता है। __ मूलगुण या उत्तरगुण की निंदा, देशधर्म या सर्वधर्म की निंदा एवं गृहस्थधर्म या संयमधर्म की निंदा के विकल्पों से युक्त प्रायश्चित्त की विशेष जानकारी के लिये भाष्य देखें। अधर्म-प्रशंसा-करण-प्रायश्चित्त 8. जे भिक्खू अहम्मस्स वण्णं वयइ, वयंतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org