________________ ग्यारहवां उद्देशक [225, भिक्षु को स्वभाव से ही गम्भीर और निर्भीक रहना चाहिये / भयकारी निमित्तों के उत्पन्न होने पर भी सावधान और विवेकपूर्वक रहना चाहिये तथा अन्य सन्तों को सूचित करना हो तो भयोत्पादक तरीके से कथन न करते हुए सावधान करने योग्य गम्भीर एवं सांत्वनापूर्ण शब्दों में कहना चाहिए। भयकारी निमित्तों के न होने पर अन्य को भयभीत करना या स्वयं भयभीत होना अति भय. भीरुता या कुतूहल वृत्ति से होता है, जो भिक्षु के लिये अयोग्य है / भयभीत करने से होने वाले दोष१. अपने या अन्य के सुख की उपेक्षा होती है / 2. दूसरों के भयभीत होने की प्रसन्नता से दृप्तचित्त हो जाता है / 3. भयभीत होने पर कोई क्षिप्तचित्त हो जाता है या उसे रोगातंक हो जाता है / 4. भयभीत होने पर या अन्य को भयभीत करने पर कभी 'भूत' आदि का प्रवेश हो जाए तो उससे अनेक दोषोत्पत्ति होती है। 5. भय के कारण होनेवाली उपयोगरहित प्रवृत्तियों से छःकाय के जीवों की विराधना हो सकती है। अतः स्वयं भी भयभीत नहीं होना चाहिए और अन्य को भयभीत नहीं करना चाहिये। विस्मितकरण प्रायश्चित्त ६५--जे भिक्खू अप्पाणं विम्हावेइ, विम्हावेतं वा साइज्जइ / ६६-जे भिक्खू परं विम्हावेइ, विम्हावेतं वा साइज्जइ / ६५---जो भिक्षु स्वयं को विस्मित करता है या विस्मित करने वाले का अनुमोदन करता है / ६६-जो भिक्षु दूसरे को विस्मित करता है या विस्मित करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-विद्या, मंत्र, तपोलब्धि, इन्द्रजाल, भूत-भविष्य-वर्तमान सम्बन्धी निमित्त वचन, अंतर्धान, पादलेप और योग (पदार्थों के सम्मिश्रण) आदि से स्वयं विस्मित होना या अन्य को विस्मित करना भिक्षु के लिये योग्य नहीं है / ___ जो स्वयं ने प्रयोग नहीं किये हों और दूसरों के द्वारा किये जाते हुये को देखा-सुना भी न हो ऐसे असद्भूत प्रयोगों की कल्पना द्वारा कथन से स्वयं को या अन्य को विस्मित करने का प्रस्तुत सूत्रों में गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है / भाष्य में वास्तविक विस्मयकारक प्रयोगों से स्वयं को या अन्य को विस्मित करने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त बताया है। _अन्य भी अनेक कुतूहलवृत्तियों से आश्चर्यान्वित (चकित) करने का प्रायश्चित्त भी इसी सूत्र से समझ लेना चाहिये / विस्मयकारक प्रयोगों से होने वाली हानियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org