________________ ग्यारहवां उद्देशक] [233 9. ण सणिहि कुम्वइ आसुपण्णे। -सूय० श्रु० 1, अ० 6, गा० 25 10. जंपि य ओदण-कुम्मास-गंज-तप्पण-मथु-भुज्जिय-पलल-सूप--सक्कुलि--वेढिम--बरसरकचुण्ण-कोसग--पिड--सिहरिणि--वट्ट--मोयग-खीर-दहि-सप्पि-णवणीय-तेल्ल-गुल-खंड-मच्छंडिय-खज्जकबंजणविहिमादियं पणीय; उवस्सए, परधरे व रणे न कप्पइ तं पि सणिहिं काउं सुविहियाणं // प्रश्न. श्रु 2, अ. 5, सू. 4 11. जंपिय समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके बहुप्पगारम्मि समुप्पन्ने-वाताहिग पित्त जाव जीवियंतकरे, सब्यसरीरपरितावणकरे, न कप्पइ तारिसे वि अप्पणो तह परस्स वा ओसह-भेसज्ज, भत्तपाणं च तं पि सण्णिहीकयं // प्रश्न श्रु. 2, अ. 5. सू. 7 इस आगम स्थलों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आहार एवं औषधि के किसी भी पदार्थ का रात्रि में रखना भिक्षु के लिए सर्वथा निषिद्ध है / भाष्य निर्दिष्ट अपवाद परिस्थिति में अशनादि रखने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है। रोगपरीषह एवं क्षुधा-पिपासापरीषह विजेता भिक्षु इस अपवाद का कदापि सेवन नहीं करे किन्तु निरतिचार शुद्ध संयम का एवं भगवदाज्ञा का पाराधन करे। आहारार्थ अन्यत्र रात्रिनिवास-प्रायश्चित्त 79. जे भिक्खू आहेणं वा, पहेणं बा, हिंगोलं वा, संमेलं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं विरूवरूवं होरमाणं पेहाए ताए आसाए, ताए पिवासाए तं रणि अण्णत्थ उवाइणावेइ, उवाइणावतं वा साइज्जइ / अर्थ-जो भिक्षु वर के घर के भोजन, वधु के घर के भोजन, मृत व्यक्ति की स्मृति में बनाये गये भोजन, गोठ आदि में बनाये गये भोजन अथवा अन्य भी ऐसे विविध प्रकार के भोजन को ले जाते हुए देखकर उस आहार की प्राशा से, उसको पिपासा (लालसा) से अन्यत्र जाकर (अन्य. उपाश्रय में) रात्रि व्यतीत करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त अाता है।) विवेचन—“प्राहेणं" आदि शब्दों की व्याख्या आचारांगसूत्र श्रु. 2, अ. 1, उ. 4 में की गई है। तदनुसार यहाँ अर्थ किया गया है / इसके अतिरिक्त वहाँ "हिंगोलं" का अर्थ यक्षादि की यात्रा का भोजन भी किया है तथा "संमेलं" से परिजन आदि के सम्मानार्थ बनाया गया भोजन अर्थ किया गया है। प्रस्तुत सूत्र की चूणि में इन शब्दों की वैकल्पिक व्याख्याएँ दी हैं, जो इस प्रकार हैं "आहेणं".--१. अन्य के घर से उपहार रूप में आने वाला खाद्य पदार्थ आदि / 2. बहू के घर से वर के घर उपहार रूप में ले जाया जाने वाला खाद्य पदार्थ आदि / 3. वर या वधू के घर परस्पर भेजा जाने वाला खाद्य पदार्थ आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org