________________ [243 ग्यारहवा उद्देशक] ९१---जो भिक्षु 1. पर्वत से दृश्य स्थान पर गिर कर मरना, 2. पर्वत से अदृश्य स्थान पर गिर कर मरना, 3. खाई-कुए आदि में गिरकर मरना, 4. वृक्ष से गिरकर मरना, 5. पर्वत से दृश्य स्थान पर कूद कर मरना, 6. पर्वत से अदृश्य स्थान पर कूदकर मरना, 7. खड्ढे कुए आदि में कूद कर मरना, 8. वृक्ष से कूदकर मरना, 9. जल में प्रवेश करके मरना, 10. अग्नि में प्रवेश करके मरना, 11. जल में कूदकर मरना, 12. अग्नि में कूदकर मरना, 13. विषभक्षण करके मरना, 14. तलवार आदि शस्त्र से कटकर मरना, 15. गला दबाकर मरना, 16. विरहव्यथा से पीड़ित होकर मरना, 17. वर्तमान भव को पुन: प्राप्त करने के संकल्प से मरना, 18. तीर भाला आदि से विंध कर मरना, 19. फांसी लगाकर मरना, 20. गृद्ध आदि से शरीर का भक्षण करवाकर मरना, इन अात्मघात रूप बाल-मरणों की अथवा अन्य भी इस प्रकार के बालमरणों की प्रशंसा करता है या प्रशंसा करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन–भगवतीसूत्र श. 13, उ. 7, सू. 81 में तथा ठाणांगसूत्र अ. 2, उ. 4, सू. 113 में इन 20 प्रकार के मरणों को 12 प्रकार के मरण में समाविष्ट किया है। निशीथचुणि में भी कहा गया है--इन बारह प्रकार के बालमरणों में से किसी भी बालमरण की प्रशंसा करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। प्रारम्भ के चार मरणों में-"गिरकर मरने" की समानता होने से एक मरणभेद होता है, आगे के चार मरणों में-"कूदकर गिरने" की समानता होने से उनका भी एक भेद होता है। इसी तरह नवमें और दसवें मरण का एक तथा ग्यारहवें तथा बारहवें मरण का एक भेद होता है। इस प्रकार बारह मरणों के बदले 4 मरण भेद हो जाते हैं और शेष विषभक्षणादि आठ मरण के पाठ भेद गिनने से कुल 12 भेदों का समन्वय हो जाता है / किन्तु मूल पाठों को देखने से यह ज्ञात होता है कि कूदकर गिरने और सामान्य गिरने को एक ही माना गया है तथा "मरु" और "भिगु" इन दोनों को भी अलग विवक्षित न करके "गिरि" में ही समाविष्ट किया है। इस प्रकार सूत्रोक्त पाठ भेदों को दो भेद-'गिरि-पडण, तरु-पडण में समाविष्ट किया है तथा जल और अग्नि सम्बन्धी चार भेदों को दो भेदों में समाविष्ट किया है। जिससे कुल 12 भेद किये गये हैं / अतः 12 व 20 दोनों भेद निविरोध हैं, ऐसा समझना चाहिये। अन्तिम दो मरणों को ठाणांग. अ. 2, सू. 113 में विशिष्ट कारण से अनुज्ञात कहा है१. वैहानसमरण, 2. गृद्धस्पृष्टमरण तथा प्राचा. श्रु. 1, अ. 8, उ. 4 में भी ब्रह्मचर्य रक्षा के लिये वैहानसमरण स्वीकार करने का विधान है। ये 12 अथवा 20 प्रकार के बालमरण आत्मघात करने के विभिन्न तरीके हैं। ये अज्ञानियों द्वारा कषायवश स्वीकार किये जाने से बालमरण कहे गये हैं। किन्तु संयम या शीलरक्षार्थ वैहानसमरण से या अन्य किसी तरीके से शरीर का त्याग करने पर ये बालमरण नहीं कहे जाते हैं। कतिपय शब्दों की व्याख्या गिरी-मरु-जत्य पन्चए आरूढेहि अहो पवायट्ठाणं दोसइ सो "गिरी" भण्णइ, अदिस्समाणे "मर"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org