________________ 198] [निशीयसूत्र अनन्तकाय—जिस वनस्पति में अनन्त जीव हों वह अनन्तकायिक वनस्पति कहलाती है। कन्दमूल और फूलन तो अनन्तकाय के रूप हैं ही किन्तु पन्नवणा आदि आगमों में इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के अनन्तकाय कहे हैं / बनस्पति के स्कन्ध से लेकर बीज तक के पाठ विभाग हैं, वे भी अनन्तकाय के लक्षणों से युक्त हों तो अनन्तकाय समझे जा सकते हैं। प्रागमों में अनन्तकाय के कुछ लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं "जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ / अणंतजीवे उ से मूले, जे यावण्णे तहाविहा / / 9 / / जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली बहलयरी भवे / अणंतजीवा उ सा छल्ली जे यावण्णे तहाविहा / / 30 / / चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णं घणो भवे / पुढवी सरिसभेएणं, अणंतजोवं वियाणाहि // 38 / / गुढछिराग पत्तं, सछोरं जं च निच्छीरं / जं पिय पणट्र-संधि, अणंतजीवं वियाणाहि / / 39 / / जे केइ णालियाबद्धा पुप्फा, संखिज्जजीविया भणिया / णिहुया अणंतजीवा, जे यावण्णे तहाविहा / / 4 / / सम्वोवि किसलयो खलु, उग्गममाणो अशंतनो भणियो / सो चेव विवढंतो, होइ परित्तो अणंतो वा // 52 // --पण्णवणासूत्र, पद 1 सारांश--१. जिस वनस्पति के टुकड़े में से दूध निकले। 2. हाथ से टुकड़े करने पर जिस वनस्पति के दो समतल विभाग हों / 3. जिस वनस्पति के विभाग को चक्राकार काटने पर कटे हुए भाग में पृथ्वीरज के समान कण-कण दिखाई दे। 4. जिस वनस्पति के मूल, कंद, खंध और शाखा की छाल अधिक मोटी हो / 5. जिस पत्ते में शिराएं (रेशे) न दिखें / संधियां न दिखें / 6. जो फूल णालबद्ध न हो। 7. उगते हुए अंकुर हों। इस प्रकार शाक, पत्ते आदि वनस्पतियां भी अनंतकाय हो सकती हैं तथा पणग, सेवाल, पाल, लहसुन, कांदा, गाजर, मूला, अदरक, हल्दी, रतालु, शकरकंद, अरबी तथा अनेक जलज वनस्पतियां तो अनन्तकाय ही हैं / अचित्त आहार में इनके सचित्त खंड या अंश हों तो वह परठने योग्य होता है। प्राधाकर्म आहारादि के उपयोग में लेने का प्रायश्चित्त 6. जे भिक्खू आहाकम्मं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / 6. जो भिक्षु प्राधाकर्मी अाहार, उपधि व शय्या का उपभोग करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org