________________ नवम उद्देशक] [187 11. जो भिक्षु शुद्धवंशज मूर्दाभिषिक्त क्षत्रिय राजा को कहीं पर भोजन दिया जा रहा हो, उसे देखकर उस राज-परिषद् के उठने के पूर्व, जाने के पूर्व तथा सबके चले जाने के पूर्व वहाँ से आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन--किसी व्यक्ति ने अल्पाहार या पूर्णाहार का आयोजन किया हो और उसमें राजा को भी निमंत्रित किया हो, वहां जब तक राजा व उसके साथ वाले भोजन करते हों तब तक भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए / उनके चले जाने के बाद वह अाहार ग्रहण करना निषिद्ध नहीं है। उसके पूर्व ग्रहण करना और वहां जाना प्रापत्तिजनक है। अत: देखने में या जानने में आ जाए कि यहां राजा निमंत्रित किये गये हैं अर्थात् वहां भोजन कर रहे हैं तो उस समय घर में जाये या आहार ग्रहण करे तो गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। 'अण्णतरगहणेन भेददर्शनं, शरीरं उपयंतीति उपवृहणीया' 'सा य चउन्विहा असणादि / ' 'जेमंतस्स रणो उबवूहणीया आणिया, 'पिट्ठओ' त्ति वुत्तं भवति / तं जो ताए परिसाए अणुट्ठिताए गेण्हति तस्स ङ्का (चउगुरु) / रायपिंडो चेव सो / आसणाणि मोत्तु उद्धट्टियाए अच्छंति, ततो केइ णिग्गता भिण्णा, असेसेसुणिग्गतेसु वोच्छिण्णा, एरिसे ण रायपिंडो।' - चूणि पृ. 459-60 / / इस सूत्र का भावार्थ यह है कि राजा जहाँ भोजन कर रहा हो उस समय उस घर में भिक्षार्थ जाना नहीं कल्पता है। उनके भोजन करके चले जाने के बाद जाने पर इस सूत्र के अनुसार प्रायश्चित्त नहीं आता है / / राजा के उपनिवासस्थान के समीप ठहरने आदि का प्रायश्चित्त-- 12. अह पुण एवं जाणेज्जा 'इहज्ज रायखत्तिए परिवुसिए' जे भिक्खू ताहे गिहाए ताए पएमाए ताए उवासंतराए विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ, असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिवेइ, परिवेंतं वा साइज्जइ / . . 12. जब यह ज्ञात हो जाए कि आज इस स्थान में राजा ठहरे हैं तब जो भिक्षु उस गृह में, उस गढ़ के किसी विभाग में या उस गह के निकट किसी स्थान में ठहरता है, स्वाध्याय करता है, प्रशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का आहार करता है या मल-मूत्र त्यागता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन पूर्व सूत्र में राजा जिस घर में भोजन करने आया हो वहां गोचरी जाने का प्रायश्चित्त कहा है और इस सूत्र में जिस घर में राजा ने एक दो दिन के लिये निवास किया हो, वहां ठहरने का प्रायश्चित्त कहा है। - इन सूत्रों का तात्पर्य यह है कि राजा के भोजन, निवास, अल्पकालीन प्रावास आदि के स्थानों से साधु को दूर रहना चाहिये। राजा साधु के स्थान पर आये यह कोई आपत्तिजनक नहीं है किन्तु साधु राजा के किसी प्रावास में या उसके निकट भी न जाये। सूत्रकृतांगसूत्र अ. 2, उ. 2, गा. 18 में भी कहा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org