________________ 82] [निशीथसूत्र प्रस्वेदनिवारण-प्रायश्चित्त 57. जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंक वा मलं वा नोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, गीहरंतं वा विसोहंतं वा साइज्जइ / 67. जो भिक्षु अपने शरीर का पसीना, जमा हुआ मैल, गीला मैल और ऊपर से लगी हुई रज आदि को निवारण करता है या विशोधन करता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघमासिक प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-- सेयं वा-'सेयो-प्रस्वेदः' - स्वल्प मलः-थोड़ा सूखा मैल / जल्लं वा-'थिगलं जल्लो भणति' ।-मैल का थेगला--ज्यादा मैल / पंक वा--'एस एव प्रस्वेद उल्लितो पंको भण्णति'--यही (ऊपर कथित) सूखा मैल पसीने आदि से गीला हो जाने पर "पंक' कहलाता है। अथवा-'अण्णो वा जो कद्दमो लग्गो'- अथवा अन्य कोई कीचड आदि लग जाय उसे भी "पंक" कहते हैं / यहाँ पहला अर्थ ही प्रसंगसंगत है। मलं वा-'मलो पुण उत्तरमाणो अच्छो, रेणू वा'-जो स्वत: स्पर्शादि से उतरने जैसा हो और उतर कर साथ हो जाय / अथवा ऊपर से लगी हुई धूल आदि / नि. चूर्णी. पृष्ठ 221 . णीहरण---अल्प या अधिक निकालना, दूर करना हटाना। विशोधन -- 'असेसविसोहणं'–पूर्ण विशुद्ध कर देना / इस सूत्र के प्रायश्चित्त-विधान में यह सूचित किया गया है कि स्वस्थ या समर्थ साधक जल्ल परिषह को अग्लान भाव से सतत सावधानी पूर्वक सहन करे / अल्प सामर्थ्य वाला साधक भी सामर्थ्यानुसार परीषह सहन करने की भावना रखे तथा अकारण परिकर्म करने की प्रवृत्ति न करे। अकारण प्रवत्ति करने पर ही सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है ! प्रत्येक व्यक्ति की सहनशक्ति के अनुसार ही 'अकारण सकारण' का निर्णय होता है / अथवा उसके समाधि या असमाधि भाव पर निर्भर करता है। चक्षु-कर्ण-दस-नहमलनीहरण-प्रायश्चित्त-- 68. जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा, कण्णमलं वा, दंतमलं वा णहमलं वा, णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णीहरंतं वा, विसोहंतं वा साइज्जइ / अर्थ-जो भिक्षु अपने अाँख का मैल, कान का मैल, दाँत का मैल या नख का मैल निकालता है या उन्हें विशुद्ध करता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राता है।) विवेचन---शब्दों का अर्थ स्पष्ट है / शेष विवेचन सूत्र 67 के समान समझ लेना चाहिए। ये कार्य अकारण करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org