________________ पांचवां उद्देशक] [149 6. अणिसिट्ट—“अणिसिटू नाम तित्थकरेहि अदिण्णं" अहवा बितिओ आएसो-जं गुरु जणेणं अणणुण्णायं, ते अणिसिट्ठ।" गाथा- पंचातिरितं दवे उ, अचित्तं दुल्लभं च दोसं तु। भावम्मि वन्नमोल्ला, अणणुण्णायं व जं गुरुणा // 2182 // ऊन का, ऊँट के केशों का, सन का, वच्चकधास का और मूज का ये, पांच प्रकार का रजोहरण रखने की तीर्थकर भगवान् की आज्ञा है ।-बृह. उ. 2, तथा ठाणांग अ. 5 / इनसे भिन्न प्रकार का रजोहरण रखना "अणिसिद्ध" कहा गया है / भाष्य में भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के भेद से यह कहा गया है कि पाँच प्रकार के रजोहरण से भिन्न प्रकार का अथवा दुर्लभ और बहुमूल्य तथा गुरु की आज्ञा के बिना ग्रहण किया गया रजोहरण "अणिसिट्ट" होता है। 7. 'वोस?'--आउग्गह खेत्ताओ, परेण जं तं तु होति वोसटुं / आरेणं अवोसट्ठ, वोसठे धरत आणादी // 2185 // 7. प्रात्मप्रमाण अर्थात् शरीरप्रमाण क्षेत्र से दूर रखा गया रजोहरण 'वोस?' कहा जाता है और आत्मप्रमाण अवग्रह के अन्दर हो तो 'अवोसट्ट' कहा जाता है / 'वोसट्ट' रखने पर प्राज्ञा का उल्लंघन होता है तथा प्रायश्चित्त आता है। __ भावार्थ यह है कि रजोहरण को सदा अपने साथ व पास में ही रखना चाहिए / शरीर प्रमाण -एक धनुष जितना दूर रहने पर प्रायश्चित्त नहीं पाता है। उससे ज्यादा दूर होने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।" प्रचलित प्रवृत्ति में कोई 5 हाथ की मर्यादा करते हैं / कोई पूरे मकान की मर्यादा भी कहते हैं। किन्तु आत्मप्रमाण कहना अधिक उचित है, आवश्यकता होने पर सरलता से उसका शीघ्र उपयोग हो सकता है। 'मुहपोत्तिय णिसेज्जाए एसेव गमो वोसट्ठा वोसट्ठसु पुव्वावरपदेसु // 2188 // इस प्रकार भाष्यकार ने मुखवस्त्रिका और निषद्या (आसन) के लिए भी उपलक्षण से 'अवोस?' 'वोस?' का विवेक रखना सूचित किया है / 8. अहिदुइ-- अधिष्ठित होने में खड़ा होना, बैठना तथा उस पर सोना आदि का समावेश हो सकता है / 'उस्सीस-मूले'--शिर के नीचे देने का अलग सूत्र होने से उसके सिवाय सभी सम्भावित क्रियाओं का अधिष्ठित होने में समावेश समझ लेना चाहिए। पांवों का या शरीर का प्रमार्जन करने में तो रजोहरण का उपयोग किया जाता है किन्तु प्रासन या शय्या के रूप में उसका उपयोग नहीं करना चाहिये / शिर के नीचे देना सिरहाना करना कहलाताहै और शेष अंग से सोना, बैठना आदि अधिष्ठित होना कहलाता है / अर्थात् शरीर के किसी भी अवयव के नीचे रजोहरण को दबाना नहीं कल्पता है। 9. उस्सोसमूले----इस सूत्र की चूणि के बाद उद्देशक का मूल पाठ समाप्त हो जाता है / अतः उपलब्ध ग्यारहवां "तुयट्टेइ” का सूत्र बाद में बढ़ाया गया प्रतीत होता है। भाष्यकार ने भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org