________________ 156] [निशीथसूत्र 5. उत्त. अ. 13, गा. 16-17 6. उत्त. अ. 19, गा. 17 7. उत्त. ग्र. 25, गा. 27, 41-43 8. उत्त. अ. 32, गा. 9-20 9. उत्त. अ. 2, गा. 16-17 10. उत्त अ. 1, गा. 26 11. सूयगडांग श्रु. 1, अ. 4, ब्रह्मचर्य विषयक है / 12. प्राचारांगसूत्र अ. 5, उ. 4 में सूत्रकार ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए अनेक उपायों का कथन करते हुए अन्तिम उपाय संथारा करने का सूचित करते हैं। 13. प्राचारांगसूत्र अ. 8, उ. 4 में सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य को सुरक्षा हेतु फाँसी लगाकर मर जाने के लिए भी सूचित किया है और ऐसे मरण को कल्याणकारी कहा है। 14. 'नव वाड' और 'दस ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान' इन दोनों में प्रायः समान विषयों का प्रतिपादन किया गया है / ब्रह्मचर्य की पूर्ण सुरक्षा के लिए इनका पूर्ण रूप से पालन अनिवार्य है। 'नव वाड' का पालन न करने पर यदा-कदा मोहकर्म का प्रबल उदय हो जाता है जिससे इस पूरे उद्देश्क में वर्णित सभी क्रियायें हो सकती हैं। अतिचारों का या अनाचारों का आचरण करने पर साधक अपने को संयम में स्थिर नहीं रख सकता है। आगमों में अन्य अन्धों की अपेक्षा मोहांध को प्रगाढ अन्ध कहा है / अतः साधक को सतत सावधान रहकर आगमानुसार जीवनयापन करना चाहिए। इस उद्देशक के सभी सूत्रों में ब्रह्मचर्य महाव्रत को दूषित करने का प्रायश्चित्त कहा है। साथ ही ब्रह्मचर्य व्रत को दूषित करने वालो अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ कही गई हैं और सभी सूत्रों में 'माउग्गामस्स मेहणवडियाए' ये पद लगाये गये हैं / इसका कारण यह है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में मूल संकल्प 'स्त्री के साथ मैथुन सेवन करने का है।' छ? और सातवें उद्देशक में ब्रह्मचर्य भंग के विस्तृत प्रायश्चित का वर्णन होने के कारण भी इस निशीथसूत्र को गोपनीय माना गया है / यहाँ गोपनीयता का तात्पर्य यह है कि इस सूत्र का स्वाध्यायी अत्यधिक योग्य हो और इसके अध्ययन से उसकी अात्मा किसी प्रकार के विषय-कषाय में प्रवृत्त न हो। प्रकाशन के इस युग में मुद्रण-यन्त्रों के उत्तरोत्तर विकास काल में किसी प्रसिद्ध आगम या ग्रन्थ का प्रकाशन न हो यह असंभव है। फिर भी इस सत्र के स्वाध्यायी को चाहिए कि वह अपनी विकृत प्रवृत्तियों को शांत रखने का दृढ़ निश्चय कर ले, तभी इस सूत्र का अध्ययन उसके लिए समाधि का कारण हो सकता है। सूत्र नं. 13 से पत्रलेखन की जानकारी मिलती है। इस सूत्र के अनुसार आगम काल में साधु समुदाय में लेखन को प्रवृत्ति और लेखन सामग्री रखने की परम्परा भी प्रचलित थी, ऐसा ज्ञात होता है। मैथुन के संकल्प से पत्र लिखने का प्रायश्चित्त इस उद्देशक में कहा है / मैथुन संकल्प के अतिरिक्त लिखने की प्रवृत्ति का प्रायश्चित्त अन्य उद्देशकों में कहीं नहीं कहा गया है। प्रागमों का व्यवस्थित लेखनकार्य देवद्धिगणी के समय हा होगा, तो भी उसके पहले साधू समुदाय में लेखनप्रवत्ति का व लेखनसामग्री के रखने का सर्वथा निषेध रहा हो ऐसा प्रतीत नहीं होता / इस सूत्र से यह स्पष्ट है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org