________________ 160] [निशीथसूत्र लोहे आदि को गर्म करने के लिये धमण के द्वारा अग्नि जलाने में, वायु को प्रेरित करने में संयम की एवं छः काय जीवों की विराधना होती है। 'राउल'-एक प्रकार का यन्त्र है जिसमें बने हुए छिद्रों में मोटे तार डालकर तथा उन्हें खींच कर पतले तार बनाकर तैयार किये जाते हैं उसमें तारों का डालना, उन्हें कसना एवं खींचना आदि क्रियाजन्य दोष होते हैं इत्यादि दोष हैं, अतः भिक्षु कडे या उनके तार नहीं बनाता है, नहीं रखता है एवं नहीं पहनता है। सूत्र नं. 1, 2, 3 में मालाओं के बनाने, रखने और पहनने का कहा है। सूत्र नं. 7, 8, 9 में आभूषण बनाने, रखने और पहनने का कहा है। अतः सूत्र 4, 5, 6, से लोहे के कड़े पहनना यह अर्थ करना उपयुक्त लगता है। कडे हाथों में या पाँवों में अपनी रुचि अनुसार पहने जा सकते हैं / सूत्र नं 6 में 'पिणद्धेइ' क्रिया के स्थान पर 'परिभुजई' क्रिया का पाठ उपलब्ध होता है। चूर्णिकार ने 'पिणद्धेइ' क्रिया को स्वीकार करके ही व्याख्या की है तथा सत्रहवें उद्देशक में 'पिणद्धेई' क्रिया का संकेत किया है / अतः यहाँ मूल पाठ में 'पिणद्धेइ' क्रिया ही रखी गई है। आभूषण-निर्माण आदि के प्रायश्चित्त 7. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए 1. हाराणि वा, 2. अद्धहाराणि वा, 3. एगावली वा, 4. मुत्तावली वा, 5. कणगावली वा, 6. रयणावली वा, 7. कडगाणि वा, 8. तुडियाणि वा, 9, केऊराणि वा, 10. कुडलाणि वा, 11. पट्टाणि वा, 12. मउडाणि वा, 13, पलंबसुत्ताणि वा, 14. सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ, करेंतं वा साइज्जइ। 8. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणडियाए हाराणि वा 'जाव' सुवण्णसुत्ताणि वा धरेइ, धरतं वा साइज्जइ। 9. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा 'जाव' सुवष्णसुत्ताणि वा पिणद्धेइ, पिणद्धेतं वा साइज्जइ। 7. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से-- 1 हार, 2. अर्द्धहार, 3. एकावली, 4. मुक्तावली, 5. कनकावली, 6. रत्नावली, 7. कटिसूत्र, 6. भुजबंध, 9. केयूर-कंठा, 10. कुडल, 11. पट्ट, 12. मुकुट, 13. प्रलंबसूत्र या 14. सुवर्णसूत्र बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है। 8. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से हार 'यावत्' सुवर्णसूत्र धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। 9. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से हार 'यावत्' सुवर्णसूत्र पहनता है या पहनने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त अाता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org