________________ पांचवां उद्देशक] [145 42. जे भिक्खू दंडगं वा, लट्टियं वा, अवलेहणियं बा, वेणुसूई वा पलिभंजिय-पलिभंजिय परिद्ववेइ, परिवेंतं वा, साइज्जइ / 40. जो भिक्षु तुबपात्र, काष्ठ पात्र या मिट्टी के पात्र को जो परिपूर्ण (प्रमाणयुक्त) हैं, दृढ़ (कार्य के योग्य) हैं, रखने योग्य हैं और कल्पनीय हैं, उन्हें टुकड़े कर करके परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। 41. जो भिक्षु परिपूर्ण, दृढ़, रखने योग्य व कल्पनीय वस्त्र, कंबल या पादपोंछन को खंडखंड करके परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है / 42. जो भिक्षु दंड, लाठी, अवलेखनिका या बांस की सूई को तोड़-तोड़ कर परठता है ाय परठने वाले का अनुमोदन करता है / उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है / विवेचन-जं पज्जत्तं तं अलं, दढं थिर, अपडिहारियं धुवं तु। लक्षण जुत्तं पायं, तं होंति धारणिज्ज तु॥२१५९॥ 1. जो पर्याप्त है--परिपूर्ण है, जितना लंबा-चौड़ा परिमाण चाहिये उतना है, वह “अलं" कहलाता है। 2. जो दृढ है-मजबूत है-काम पाने योग्य है, वह "थिरं" कहलाता है। 3. जो अपडिहारी है-अप्रत्यर्पणीय है, गृहस्थ या साधु अथवा प्राचार्य अादि किसी को पुनः देने योग्य नहीं है अर्थात् जिसके लिये रखने को प्राज्ञा प्राप्त है, वह "धुवं" कहलाता है / 4. जो पागमोक्त है, लक्षण युक्त है अथवा उद्गम आदि दोषों से रहित है अर्थात् शुद्ध एवं सुशोभित होने से कल्पनीय है, वह "धारणीय' कहलाता है। कोई भी उपकरण प्रमाण युक्त होते हुए भी जीर्ण होने से कार्य के अयोग्य हो सकता है, प्रमाणयुक्त और कार्य योग्य होते हुए भी उसको सदा रखने की अनाज्ञा हो सकती है, प्रमाण युक्त, कार्य योग्य और अपडिहारी होते हुए भी लक्षणहीन या दोषयुक्त हो सकता है। अतः अलं, थिरं, धुवं, धारिणिज्ज ये चार विशेषण कहे गये हैं। चारों विशेषणों से युक्त पात्र धारण करने योग्य होता है। ऐसे पात्र को टुकड़े-टुकड़े करके परठने पर प्रायश्चित्त आता है। आगमों में अनेक जगह तीन प्रकार के पात्रों को जातियुक्त कथन किया गया है, उसका आशय यह है कि साधु तीन प्रकार के पात्र ही धारण कर सकता है। वत्यं-कंबलं-पायपुछणं-इस दूसरे सूत्र में तीन प्रकार के वस्त्रों का कथन हुआ है / यहाँ नियुक्ति एवं भाष्यकार पायपुछणं' से वस्त्र का हो निर्देश करते हैं किन्तु पायपुंछण से रजोहरण का अर्थ नहीं करते / इस दूसरे सूत्र के तथा तीसरे दंडादि सूत्र के संबंध में भाष्यगाथा इस प्रकार है पायम्मि उ जो गमो, णियमा वत्यस्मि होति सो चेव / दंडगमादिसु तहा, पुठवे अवरम्मि य पदम्मि // 2164 // द्वितीय सूत्र से संबंधित इस गाथा में भी वस्त्र का ही निर्देश है, रजोहरण का संकेत नहीं है। रजोहरण संबंधी दस सूत्र दंडसूत्र के बाद में हैं ही। उनमें रजोहरण संबंधी सभी विषयों का कए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org