________________ चतुर्थ उद्देशक [119 126. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण को परठकर अति दूर जाकर आचमन करता है या आचमन करने वाले का अनुमोदन करता है। 127. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण को परठकर तीन से अधिक पसली से आचमन करता है या आचमन करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-इन दस सूत्रों का संक्षिप्त भाव यह है कि संध्या समय में तीन उच्चार-प्रस्रवण परठने की भूमियों का प्रतिलेखन करना चाहिये / बैठने के लिये जीवरहित भूमि कम से कम एक हाथ लंबी चौड़ी होनी ही चाहिये / दिशावलोकन आदि विधि का पालन करना चाहिये / मल-निवृत्ति के बाद वस्त्रखंड से मलद्वार को पोंछ कर साफ करना चाहिये / फिर कुछ दूर हट कर मर्यादित जल से शुद्धि कर लेनी चाहिये। पोंछना और आचमन आदि का कथन बड़ी नीत से ही संबंधित है। बड़ी शंका की बाधा कभी कभी होती है / अतः तीन भूमियों का प्रतिलेखन भी उसके लिये उपयुक्त है। लघुशंका से निवत्त होने के बाद पोंछना या पाचमन करना आवश्यक नहीं है तथा प्राय: तीन से अधिक बार भी लघुशंका के लिये जाना होता है / इसलिए इन दस सूत्रों का अर्थ मल-त्याग की मुख्यता से समझना उचित है। 1. खुड्डागंसि"--रणिपमाणातो जं आरतो तं खुड्डं।" गाथा-वित्थारायामेणं, थंडिल्लं जं भवे रयणिमित्तं / चउरंगुलोवगाढं, जहण्णयं तं तु विस्थिण्णं / / 1864 // लंबाई-चौडाई में एक हाथ से कम विस्तार वाली भूमि "खुड्डग" कही जाती है और एक हाथ विस्तार वाली 'जधन्य विस्तीर्ण' भूमि कही जाती है। 2. “साणुप्पए" ..-"साणुप्पओ णाम चउभागावसेस चरिमाए" चौथी पौरुषी के चौथे भाग में अर्थात् स्वाध्याय से निवृत्त होने के बाद संध्या समय के अस्वाध्याय काल में शय्याभूमि व उच्चारप्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना करनी चाहिये। ___ हरी वनस्पति, कीडियों आदि के विल, खड्डे, विषम भूमि आदि की जानकारी प्रतिलेखन करने से ही होती है / प्रतिलेखन करने पर अनेक दोषों से बचा जा सकता है / किन्तु प्रतिलेखन न करने पर अचानक हुए दीर्व शंका के वेग को रोकने पर रोग या मृत्यु भी होना संभव है। 3. 'तओ'–तीन जगह प्रतिलेखन करने का कारण यह है कि एक ही जगह देखने पर वहां यदि अन्य कोई मल त्याग कर दे या पशु पाकर बैठ जाय तो अनेक दोषों की संभावना रहती है। अतः तीन भूमियों का प्रतिलेखन करना चाहिये। 4. "अविहीए--मल त्याग के पूर्व बैठने की भूमि का प्रतिलेखन या प्रमार्जन करना, 'कोई आसपास में है या नहीं' यह जानने के लिए दिशावलोकन करना, जल्दी सूख जाय ऐसे स्थान पर विवेकपूर्वक परठना, मल में कृमि पाते हों तो धूप में मलत्याग नहीं करना इत्यादि समाचारी का पालन करना विधि कहलाता है / उससे विपरीत करना अविधि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org