________________ 140] [निशीथसूत्र पट्टीवंसो दो धारणा, चत्तारि मूल बेलीओ। मूलगुण-सपरिकम्मा, एसा सेज्जाउ णायव्वा / / 2046 / / वंसग, कडण-उकंपण, छावण लेवण दुवार भूमि य।। सपरिकम्मा सेज्जा, एसा मूलुत्तरगुणेसु // 2047 // दुमिय धुमिय वासिय, उज्जोविय बलिकडा अवत्ता य / सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोही कोडी कया वसही / / 2048 // अन्य प्रकार से और भी दोषों का कथत गाथा 2052-53-54 में हुआ है यथा-पदमार्ग, संक्रमणमार्ग, दगवीणिका, ग्रीष्म ऋतु में दीवाल में खड्डा कर हवा का रास्ता बनाना,सर्दी, वर्षा में ऐसे स्थानों को बन्द करना, जीर्ण दीवाल आदि को ठीक करना, बिल, गड्ढे आदि को ठीक करना, मकान से पानी चता हो तो ठीक करना, दोवाल आदि की संधियों को ठीक करना इत्यादि / उपर्यक्त परिकर्म के कार्य साधु के उद्देश्य से करने पर वह शय्या "परिकर्म दोष" वाली होती है / हीनाधिक सावध प्रवृत्ति के अनुसार प्रायश्चित्तस्थान व तप में हीनाधिकता होती है। भाष्यकार ने बताया है कि उत्तरगुण के व अल्पप्रारम्भ के दोष वाली शय्या का लघुमासिक प्रायश्चित्त है। प्राचारांगसूत्र के अनुसार अनेक परिकर्म युक्त शय्या गृहस्थ के स्वाभाविक उपयोग में पा जाने पर कालान्तर से साधु के लिये कल्पनीय हो जाती है। ऐसी अवस्था में उस मकान में प्रवेश करने व रहने से कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। संक्षिप्त भावार्थ 1. केवल जैन साधु के उद्देश्य से अथवा जैन साधु युक्त अनेक प्रकार के साधुओं या पथिकों के उद्देश्य से बनायी गयी धर्मशाला आदि "उद्देशिक-शय्या" है / 2. गृहस्थ के अपने लिये बनाये जाने वाले मकान का या परिकर्म कार्य का समय साधु के निमित्त आगे-पीछे करने पर या शीघ्रता से करने पर अर्थात् 5 दिन का कार्य एक दिन में करने पर वह गृहस्थ का व्यक्तिगत मकान भी "सपाहुड शय्या" हो जाती है। 3. मकान गृहस्थ के लिये बना हुआ है। उसमें साधु के लिये परिकम कार्य करने पर गृहस्थ के उपयोग में आने के पूर्व कुछ काल तक वह मकान "सपरिकर्म शय्या" है। इन तीन प्रकार के दोषयुक्त शय्या में प्रवेश करने का अर्थात् रहने का लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है। दूसरे व तीसरे दोष वाली शय्या का निर्माण गृहस्थ के स्वप्रयोजन से होता है और प्रथम दोष वाली शय्या में बनाने वालों का स्वप्रयोजन नहीं होकर केवल परप्रयोजन से उसका निर्माण किया जाता है, यह अन्तर ध्यान में रखना चाहिये। वर्तमान में उपलब्ध उपाश्रयों की कल्प्याकल्प्यता साधु-साध्वी के ठहरने के स्थान को आगम में "शय्या, वसति एवं उपाश्रय' कहा जाता है और लोकभाषा में 'उपाश्रय या स्थानक' कहा जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org