________________ 128] [निशीथसूत्र 5. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर स्वाध्याय करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 6. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर स्वाध्याय का उद्देश करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 7. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर स्वाध्याय का समुद्देश करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 8. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर स्वाध्याय की प्राज्ञा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 9. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर सूत्रार्थ की वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 10. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर सूत्रार्थ की वाचना ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 11. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में ठहरकर स्वाध्याय का पुनरावर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त अाता है।) विवेचन 'सचित्त रुक्खमूलसि'--"जस्स सचित्त रुक्खस्स हत्यि-पय-पमाणो पेहुल्लेण खंधो तस्स सव्वतो जाव रयणिप्पमाणा ताव सचित्तभूमि / " -चूणि जिस वृक्ष के स्कंध की मोटाई हाथी के पैर जितनी हो तो उसके चारों ओर एक हाथ प्रमाण भूमि सचित्त होती है / इससे अधिक मोटाई होने पर उसी अनुपात से स्कंध के पास की भूमि सचित्त होती है / अतः उतने स्थान पर खड़ा रहने से, बैठने से या शयनादि करने से पृथ्वीकाय की विराधना होती है तथा असावधानी से वृक्षस्कंध का स्पर्श होने पर वनस्पतिकाय की विराधना होती है। 'ठाणं-सेज्ज-णिसीहियं'-"ठाणं-काउस्सग्गो, वसहि णिमित्तं सेज्जा, विसम-ठाण णिमित्तंणिसीहिया।"-चूणि "सचित्त-रुक्खमूले, ठाण-णिसीयण-तुयट्टणं वावि" // 1909 / / वृक्षस्कंध के समीप भूमि पर खड़े होने को स्थान, सोने को शय्या और बैठने को निषद्या करना कहा गया है। "सज्झाय"-"अणुप्पेहा, धम्मकहा, पुच्छाओ सज्झायकरणं !"---चूणि "सज्झाय" शब्द से अनुप्रेक्षा, धर्मकथा और प्रश्न पूछना, इनका ग्रहण हुआ है। "उद्देस"--"उद्देसो अभिनव अधीतस्स"-नये मूलपाठ की वाचना देना। "समुद्देस" - "अथिरस्स समुद्देसो" कण्ठस्थ किये हुए को पक्का व शुद्ध कराना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org