________________ 130] [निशीथसूत्र "जे ते संघाडिबंधणसुत्ता ते दीहा ण कायव्या" ये डोरियाँ बाँध लेने के बाद चार अंगुल से ज्यादा न बचे, इतनी ही लम्बी करनी चाहिए / क्योंकि अधिक लम्बी होने से उठाने-रखने में अयतना होती है, 'संमद्दा व "अणेगरूवध्रणा" नामक प्रतिलेखना दोष लगता है, अल्पबुद्धि या कुतूहल वृत्ति वाले के उपहास का निमित्त हो जाता है / अथवा डोरियों के उलझ जाने पर सुलझाने में समय लगने के कारण सूत्रार्थ की हानि होती है। अतः आवश्यक हो तो "चउरंगुलप्पमाणं, तम्हा संघाडि-सुत्तगं कुज्जा" चार अंगुल लम्बे बंधन सूत्र बनाने चाहिए, ज्यादा बड़े बनाने पर प्रायश्चित्त पाता है / पत्ते खाने का प्रायश्चित्त--- 14. जे भिक्ख पिउमंद-पलासयं वा, पडोल-पलासयं वा, बिल्लपलासयं वा, मीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा संफाणिय-संफाणिय आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ / 14. जो भिक्षु नीम के पत्ते, पडोल–परवल के पत्ते, बिल्व के पत्ते, अचित्त शीतल या उष्ण जल में डुबा-डुबा कर-धो-धो कर खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लधुमासिक प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-ये सूत्र-निर्दिष्ट सूखे पत्ते औषध रूप में लेना आवश्यक हो तो गृहस्थ के यहाँ स्वयं के लिए सुकाकर स्वच्छ किये हुए मिल जाएँ ऐसी गवेषणा करनी चाहिए। उन्हें भिक्षु स्वयं धोवे और धोया हुआ पानी फेंके तो जीव-विराधना व प्रमाद-वृद्धि होने से प्रायश्चित्त कहा गया है। अन्य भी औषध-योग्य अचित्त पत्र-पुष्प अादि का धोना भी इसमें समाविष्ट है, ऐसा समझ लेना चाहिए / यहाँ "पडोल" का अर्थ चूणि एवं भाष्य में नहीं किया है / अन्यत्र कोष आदि में 'वेली विशेष' तथा "परवल के पत्ते'' अर्थ किया गया है / प्रत्यर्पणीय पादपोंछन सम्बन्धी प्रायश्चित्त-- 15. जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुछणं जाइत्ता "तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामित्ति" सुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ / 16. जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुछणं जाइत्ता "सुए पच्चप्पिणिस्सामि" ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ, पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ / 17. जे भिक्खू सागारिय-संतियं पायपुछणं जाइत्ता "तमेव रणि पच्चप्पिणिस्सामि" त्ति सुए पच्चप्पिणइ, पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org