________________ 5.] [निशीथसूत्र करने में न्यूनाधिकता समझ लेना चाहिये, तथा 'फुमेज्ज रएज्ज' के प्रसंग में मेंहदी आदि के स्थान पर अंजन आदि के लगाने की भिन्नता समझ लेनी चाहिये / रोम-केश-परिकर्मप्रायश्चित्त 64. जे भिक्खू अप्पणो—"नासा-रोमाई" कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं का संठवेंतं वा साइज्जइ। 65. जे भिक्खू अप्पणो दोहाई "भमुग-रोमाई" कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ। 66. जे भिक्खू अप्पणो "दीहाई-केसाई" कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेतं वा साइज्जइ। 64. जो भिक्षु अपनी नासिका के रोमों को काटता है या सुधारता-संवारता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। 65. जो भिक्षु अपने बढ़े हुए भौंहों के केशों को काटता है या सुधारता-संवारता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। 66. जो भिक्षु अपने बढ़े हुए मस्तक के केशों को काटता है या सुधारता-संवारता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-सूत्र 16 से 40 तक 25 सूत्रों का क्रम तथा मूल पाठ भाष्य चूर्णी से स्पष्ट हो जाता है / 6+6+6+6+1=25 सूत्र / प्रस्तुत 41 से 66 तक के 26 सूत्रों की संख्या का निर्देश एवं प्रथम व अंतिम सूत्र का विषयनिर्देश भी चूर्णिकार ने किया है और शेष 24 सूत्रों का अर्थ नियुक्ति संयुक्त करने का निर्देश किया है / ऐसा करने में इन 26 सूत्रों के मूल पाठ सुरक्षित नहीं रहे / क्योंकि नियुक्तिगाथा में पद्यरचना के कारण सभी सूत्रों के शब्दों का निर्देश व क्रम नहीं रह सका यह स्पष्ट है / मस्तक के वालों संबंधी सूत्र को चूर्णिकार स्वयं अंतिम कहते हैं और वे ही उसे नियुक्तिगाथा में बीच में दिखा कर वहां भी उसकी चूर्णी करते हैं। चूर्णी और नियुक्ति में सब मिलाकर भी 26 सूत्रों की जगह 18 सूत्रों की ही व्याख्या है। एक कांख का सूत्र, प्रोष्ठ के 6 सूत्र, एक अक्षिपत्र का सूत्र इन आठ सूत्रों का उस व्याख्या में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं हया है। जिन 18 सूत्रों की व्याख्या की है उनके उपलब्ध पाठ भी विभिन्न यथा 'नासा' की जगह 'पास' संबंधी सूत्र मिलता है / वह न आवश्यक है और न उसकी व्याख्या हुई है। रोमराजि की व्याख्या की है तो उसका सूत्र ही नहीं है उसकी जगह "अक्षिपत्र" सूत्र से प्रांख के रोम का कथन दुबारा हो गया है। इन सब स्थितियों का विवेचन में ध्यानपूर्वक अनुप्रेक्षण किया गया है। तथा 26 सूत्रों और 13 पदों का जो निर्देश चूर्णी की गा. 1518 में हुआ है, उसके आधार से व शरीर के नीचे से ऊपर के क्रम का मिलान करते हुए (जैसा कि आचा. श्रु. 1, अ. 1, उ. 2, में है ) चूर्णि-नियुक्ति मूल पाठ एवं आदि अंत के सूत्रों की तथा 26 व 13 की संख्या की संगति मिलाते हुए सूत्रों को उनके क्रम को एवं अर्थ को इस तरह व्यवस्थित किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org