________________ 116] [निशीथसूत्र गेरुय वणिय सेडिय, सोरठ्ठिय पिट्ठ कुक्कुसकए य / उक्कट्ठमसंसठे, यम्वे आणुपुधीए // 1849 // यहां पर निशीथ चर्णिकार ने भी "पिट्ठ' शब्द को स्वतंत्र मानकर "तंदुलपिढें ग्राम असत्थोवहतं” व्याख्या की है / यही अर्थ उपब्ध अनुवादों में किया जाता है / "तंदुल" से सूखे चावल अर्थ किया जाए तो वे अचित्त ही होते हैं और हरे चावल अर्थ किया जाय तो उसके लिये “उक्कुट्ठ" शब्द का आगे स्वतंत्र सूत्र है जिसका अर्थ चर्णिकार स्वयं सचित्तवणस्सईचुण्णो ओकुट्ठो भण्णति ऐसा करते हैं। जिसमें सभी हरी वनस्पतियों के कूटे व चटनी आदि का समावेश हो सकता है। भाष्य, चूणि एवं दशवकालिक की अपेक्षा निशीथ के मूल पाठ में कुछ भिन्नता है / कई प्रतियों में तो 'सोरट्टिय' शब्द नहीं है किन्तु अन्य 'कंतव, लोद्ध, कंदमूल, सिंगवेर, पुप्फग' ये शब्द बढ़ गये हैं तथा 'एवं एक्कवीसं हत्था भाणियव्वा', 'एगवीसभेएण हत्थेण' आदि पाठ बढ़ गये हैं तो किसी प्रति में 23 संख्या भी हो गई है। वनस्पति से संसट्ठ की अपेक्षा यहां दो शब्द प्रयुक्त हैं 1. वनस्पति का कूटा पीसा चूर्ण चटनी, 2. वनस्पति के छिलके भूसा आदि / इन से हाथ आदि संसृष्ट हो सकते हैं और इनमें सभी प्रकार की वनस्पति का समावेश भी हो जाता है। अतः लोध्र, कंद, मूल, सिंगबेर, पुप्फग के सूत्रों की अलग कोई अावश्यकता नहीं रहती है / भाष्य, चणि तथा दशवकालिक आदि से भी ये शब्द प्रामाणित नहीं हैं / कंतव' शब्द तो अप्रसिद्ध ही है / अतः ये पांच शब्द और 21 हत्था आदि पाठ बहुत बाद में जोड़ा गया है। क्योंकि उसके लिये कोई प्राचीन आधार देखने में नहीं पाता है / अन्योन्य शरीर का परिकर्म करने का प्रायश्चित्त 64. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ / एवं तइयउद्देसगमेणं यवं जाव जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ। 64. जो भिक्षु आपस में एक दूसरे के पावों का एक बार या अनेक बार 'आमर्जन' करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / इस प्रकार तीसरे उद्देशक के (सूत्र 16 से 69 तक के) समान पूरा पालापक जान लेना चाहिये यावत् जो भिक्षु आपस में एक दूसरे का ग्रामानुग्राम विहार करते समय मस्तक ढांकता है या ढांकने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन-ये कुल 54 सूत्र हैं / आवश्यक कारण के बिना, केवल भक्ति या कुतूहलवश आपस में शरीर का परिकर्म करने पर इन सूत्रों के अनुसार प्रायश्चित्त आता है। तीसरे उद्देशक में ये कार्य स्वयं करने का प्रायश्चित्त कहा गया है और यहां साधु-साधु आपस में परिकर्म करें तो प्रायश्चित्त कहा गया है / इतनी विशेषता के साथ यहां भी 54 ही सूत्र समझ लेना चाहिए और उनका अर्थ एवं विवेचन भी प्राय: वैसा ही समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org