________________ 100 [निशीथसूत्र सौ चेव निरवसेसो, गामादारक्खिमादीसु 1854 / / 1. ग्रामरक्षक-गांव की देख-रेख करने वाले -सरपंच आदि / 2. देशरक्षक-विभाग विशेष यथा--जिला आदि के रक्षक-जिलाधीश आदि अथवा चोर आदि से देश की रक्षा करने वाले। 3. सीमारक्षक--राज्य की सीमा-किनारे के विभागों की रक्षा - देख-रेख करने वाले / 4. रण्णारक्षक-राज्य की रक्षा करने वाले राज्यपाल आदि / 5. सव्वारक्षक--इन सभी क्षेत्रों में आपृच्छनीय-प्रधानवत् / पूर्व के 15 सूत्र राजा और राजधानी संबंधी हैं और ये 15 सूत्र संपूर्ण राज्य की अपेक्षा वाले हैं। इन 15-15 सूत्रों के अलग-अलग दो विभाग करने का यही करण है / "सर्वरक्षक" दोनों विभागों में कहा गया है / १-प्रथम विभाग के सभी कार्यों में सलाह लेने योग्य २-द्वितीय विभाग के सभी कार्यों में अनुमति लेने योग्य, ऐसा अर्थ समझ लेने से दोनों की भिन्नता समझ में आ जाती है। इन सूत्रों की संख्या में व क्रम में अनेक प्रतियों में भिन्नता है, वह संख्या 24, 27, 30, 40 आदि हैं। क्रम कहीं एक साथ 40, कहीं एक साथ 24, कहीं उद्देशक की आदि में कुछ सूत्र हैं व कुछ उद्देशक के बीच में आये हैं। कहीं 5 या 6 अत्तीकरेइ के सूत्र हैं तो कहीं केवल राजा संबंधी तीन सूत्र देकर उसके बाद राजारक्षक के तीन सूत्र दिए हैं। इस तरह अनेक क्रम हैं। ये विभिन्नताएं लिपिकों के प्रभाद से हुई हैं, किसी प्रकार का अनौचित्य न होने से एक साथ 30 सूत्र वाला पाठ यहाँ लिया गया है और क्रम एवं संख्या चूर्णी और भाष्य के अनुसार दी गई है। तेरापंथी महासभा से प्रकाशित “निसीहझयणं" में 15-15 सूत्रों के दो विभाग किये हैं और द्वितीय विभाग के लिए टिप्पण दिया है "एतानि सूत्राणि उद्देशकादिसूत्रेभ्यः किमर्थं पृथक्कृतानि इति न चर्चितमस्ति भाष्यचूादौ”–पृष्ठ 28 // कृत्स्न धान्य खाने का प्रायश्चित्त 31. जे भिक्खू "कसिणाओ" ओसहिओ आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ / जो भिक्षु "कृत्स्न" औषधियों (सचित्त धान्य आदि) का आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-"कसिण" द्रव्यकृत्स्न और भावकृत्स्न इन दो भेदों के चार भाग होते हैं। द्रव्यकृत्स्न का अर्थ है अखंड और भावकृत्स्न का अर्थ है सचित्त / यहाँ प्रायश्चित्त का विषय है इसलिए "भावकृत्स्न" (सचित्त) अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये / “ोसहियो"-धान्य और उपलक्षण से अन्य प्रत्येक जीव वाले बीजों को ग्रहण करना चाहिये। अतः सूत्र का अर्थ यह है कि सचित्त धान्य एवं बीज का आहार करने से लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org