________________ चतुर्य उद्देशक] [101 द्रव्य और भाव की चौभंगी में सचित्त संबंधी प्रथम और द्वितीय दो भंग हैं उनका ही यह प्रायश्चित्त है, अचित्त संबंधी दो भंगों में सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं है। व्याख्याकार ने “अचित्त अखंड" में भी प्रायश्चित्त कहा है किन्तु सूत्रकार का प्राशय यह नहीं हो सकता / इसके लिए निम्न स्थल देखने चाहिये 1. अदु जावइत्थ लूहेणं, आयणं मंथुकुम्भासेणं / प्रा. सु. 1, अ. 9, उ. 4, गा. 4 2. अवि सूइयं व सुक्कं वा, सीर्यापडं पुराणकुम्मासं। ___अदु बुक्कसं व पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्धे दविए॥ प्रा. सु. 1, अ. 9, उ. 4, गा. 13 3. आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीर-जयोदगं च / उत्त. प्र. 15, गा. 13 4. पताणि चेव सेवेज्जा, सोयपिडं पुराणकुम्मासं। अदु बुक्कसं पुलागं वा, जवणट्ठाए णिसेवए मंथु॥ उत्त. अ. 8, गा. 12 5. दशवै. अ. 5. उ. 1, गा. 98 में 'मंथुकुम्मासभोयणं / उपरोक्त स्थलों से स्पष्ट सिद्ध है कि भगवान् महावीर स्वामी ने अचित्त अखंड धान्य---- चावल, उड़द आदि का आहार किया था तथा उत्तराध्ययन सूत्र में “जव” के अोदन का व उड़द के बाकले आदि के सेवन का कथन है / वर्तमान में भी चावल, बाजरा, जौ आदि का प्रोदन व अखंड मूग, चणा आदि का व्यंजन होता है / अतः अचित्त अखंड धान्यादि खाने का प्रायश्चित्त न समझ कर सचित्त धान्य बीज के आहार का प्रायश्चित है यह समझना ही आगमसम्मत है / सचित धान्य जानकर खाने का प्रायश्चित्त और अनजाने में खाने का प्रायश्चित्त भिन्न-भिन्न होता है / उसे प्रथम उद्देशक के प्रारंभ में दी गई प्रायश्चित्त-तालिका से समझ लेना चाहिये। आज्ञा लिए बिना विमय खाने का प्रायश्चित्त 32. जे भिक्खू आयरिय-उवज्शाएहि अविदिण्णं अण्णयरं विगई आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ। जो भिक्षु प्राचार्य या उपाध्याय की विशेष आज्ञा के बिना किसी भी विगय का आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लधुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन-१. आयरिय-उवज्झाय आचार्य विद्यमान हों तो उनकी अन्यथा उपाध्याय की और उपलक्षण से जिस प्रमुख या स्थविर की अधीनता में या सान्निध्य में रहकर विचरण कर रहा हो उसी की आज्ञा लेनी चाहिये / 2. अविदिण्ण-साधु गोचरी के लिये तो आज्ञा लेकर जाता ही है। किन्तु उस आज्ञा से तो विगय रहित आहार ही ग्रहण कर सकता है। यदि विगय–घी, दूध लेना आवश्यक हो तो विशेष स्पष्ट कहकर आज्ञा लेनी चाहिये / सामान्य विधान के अनुसार साधु विगयरहित आहार ही ले सकता है। विशेष कारण से विगययुक्त आहार लेना आवश्यक हो तो आचार्य की आज्ञा प्राप्त किये बिना विगय नहीं ले सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org