________________ दूसरा उद्देशक] [51 इस प्रकार से पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग समझना चाहिये। शेष विवेचन सूत्र 43 के समान है। पाहार की आसक्ति से आहार संबंधी अनेक दोष लगने की सम्भावना रहती है। विषमिश्रित, अभिमंत्रित और दोषयुक्त आहार का ज्ञान होने पर परठने का प्रायश्चित्त नहीं है। भाष्य में दोनों [43-44] सूत्रों की व्याख्या में दृष्टांत देकर सूत्रोक्त भाव समझाये गये हैं / अवशिष्ट आहार-अनिमंत्रण-प्रायश्चित्त 45. जे भिक्खू मणुण्णं भोयणजायं पडिगाहेत्ता बहुपरियावण्णं सिया, अदूरे तत्थ साहम्मिया, संभोइया, समणुण्णा, अपरिहारिया संता परिवसंति, ते अणापुच्छिय अणामंतिय परिठ्ठवेइ, परिट्ठवेंतं वा साइज्जइ। 45. मनोज्ञ पाहार-ग्रहण कर लेने के बाद ज्ञात हो जाए कि अधिक है, इतना नहीं खाया जा सकता किन्तु परठना पड़ेगा, ऐसी स्थिति में यदि अन्यत्र समीप में ही कोई सार्मिक, संभोगी, समनोज्ञ या अपरिहारिक साधु हों तो उनको पूछे बिना और निमंत्रित किये बिना परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-१. मनोज्ञ-यहां मनोज्ञ का आशय है मधुर तथा रुचिकर आहार / 2. भोयणजायं सभी प्रकार के भोज्य पदार्थ / / 3. बहपरियावण्णं-पाहार करने के बाद बचा हा आहार / -समीप के उपाश्रय में अथवा उपनगर के उपाश्रय में / 5. साहम्मिया--समान श्रुत एवं चारित्र धर्म वाले अथवा-समान अनगार धर्म वाले समान लिंग एवं समान प्ररूपणा वाले।। 6. संभोइया–परस्पर आहार-पानी का आदान-प्रदान करने वाले। 7. समणुण्णा-समान समाचारी वाले एवं परस्पर स्नेह सद्भाव वाले या शुद्ध व्यवहार वाले समाज से अवहिष्कृत भिक्षु / 8. अपरिहारिया—जो प्रायश्चित्तप्राप्त न हो / जो भिक्षु भिक्षाचर्या में गवेषणा-कुशल होता है, समयज्ञ होता है, स्वयं तथा साथी मुनि की आहार की मात्रा जानने वाला होता है-उसे ही गोचरी जाने की आज्ञा दी जाती है। __ मनोज्ञ आहार हो, पर्याप्त हो, दाता हो, फिर भी वह अपनी और साथी साधुनों की आवश्यकता के अनुसार तथा संयमी जीवन के अनुकूल पाहार ग्रहण करता है, लोभ, आसक्ति या अविवेक से आहारादि ग्रहण नहीं करता है, तो भी आहार कर लेने के बाद कभी कुछ आहार बच जाए तो उस पाहार का उपयोग करने की विधि इस सूत्र में कही गई है। समीप के किसी उपाश्रय में जहां सार्मिक सांभोगिक या समनोज्ञ साधु हों वहां वह बचा आहार लेकर जावें और उन्हें कहे कि हमारे यह बचा हुआ पाहार है, आप इसका उपयोग करें। यदि वे न लें तो उसे एकान्त में ले जाकर प्रासुक भूमि पर परठ दे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org