________________ दूसरा उद्देशक] [73 पूर्व आलापकों को क्रियाएँ गंडादि आलायक को क्रियाएँ१. आमर्जन-हाथ से घर्षण, 1. शस्त्र से काटना व काटकर, 2. मर्दन--हाथ से दबाना, 2. पीप खून निकालना व निकालकर, 3. मालिश-तेलादि से, 3. अचित्त जल से धोना और धोकर, 4. उबटन-लोधादि से, 4. मलहम लगाना व लगाकर, 5. प्रक्षालन-अचित्त जल से, 5. तेलादि से मालिश करना, करके, 6. रंगना-मेहंदी आदि से, 6. सुगंधित द्रव्य से सुवासित करना / सूत्र संख्या 16 से 69 तक शरीरपरिकर्म प्रायश्चित्त के कुल 54 सूत्र हैं / व्याख्याकार ने इन सूत्रों का भाव यह बताया है कि-'कारण से करने में अनुज्ञा व अकारण से करने पर प्रायश्चित्त है' ऐसा समझना चाहिये / किन्तु व्रण के 6 सूत्र और गंडादि के 6 सूत्र हैं / इन 12 सूत्रों में तो कारण स्पष्ट है फिर भी प्रायश्चित्त क्यों कहा गया है ? ___ इस प्रश्न के उत्तर में व्याख्याकार कहते हैं कि-'रोग को असातावेदनीय से उत्पन्न हुआ जानकर अदीन भाव से प्रसन्नचित्त रहकर निर्जरार्थ समभाव से सहन करना चाहिये, किन्तु प्रार्तध्यान या असमाधि भाव नहीं करना चाहिये। जिनकल्पी आमरणात इसी अवस्था से रहते हैं / किन्तु स्थविरकल्पी द्वारा वेदना असह्य होने पर 1. सूत्र अर्थ के विच्छेद न होने के लिये 2. संयमी जीवन के लिये, 3. समाधिभाव पूर्वक मरण की प्राप्ति के लिये तथा 4. ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की वृद्धि करने के लिये, इन क्रियाओं को करना वह "सकारण करना" कहलाता है। 1. सहनशीलना आदि का विचार किये बिना, 2. क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य रखे बिना, 3. साधारण कारण से ही शीघ्र उपचार करने की आदत मात्र से ये प्रवृत्तियां करना "अकारण करना" कहलाता है, इस अपेक्षा से यह प्रायश्चित्तविधान है। इस भावार्थ की सूचक तीन गाथायें इस प्रकार हैंणिक्कारणे ण कम्पति, गंडादोएसु छेअ-धुवणादी। आसज्ज कारणं पुण, सो चेव गमो हवइ तत्थ / / 1507 णच्चुपतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए। अद्दीणो अव्वहिओ, तं दुक्खं अहियासए सम्मं // 1508 // अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीवट्ठिए समाहिहेउं वा। पमज्जणादि तु पदे, जयणाए समायरे भिक्खू // 1509 // नि. चू. निशीथ सूत्र उद्देशक 13 में बिना रोग के रोग के पूर्व या पश्चात्] चिकित्सा करे तो प्रायश्चित्त कहा गया है / उसके फलितार्थ से भी यह भाव निकलता है कि स्थविरकल्पी अपने समाधि भाव का विचार करके आवश्यक हो तो गीतार्थ व गीतार्थ की निश्रा से ऋमिक विवेकपूर्वक उपचार तथा शरीरपरिकर्म को क्रियाएं कर सकता है / अपवाद प्रसंग का निर्णय गीतार्थ के तत्त्वावधान में होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org