________________ 52] [निशीथसूत्र समीप के उपाश्रय में विद्यमान साधुओं को बचा हुआ आहार दिखाये बिना तथा उपयोग में लेने का कहे बिना यदि कोई परठ दे तो उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। सूत्र में सांभोगिक आदि तीन विशेषण प्रयुक्त हैं तथापि यहाँ सांभोगिक की प्रमुखता है / अतः यदि निकट में असांभोगिक साधु हो तो उन्हें निमंत्रण किये बिना अशनादि के परठ देने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है। शय्यातर पिंड-प्रायश्चित्त 46. जे भिक्खू सागारियपिडं गिण्हइ, गिण्हतं वा साइज्जइ / 47. जे भिक्खू सागारियपिंडं भुजइ भुजंतं वा साइज्जइ / 46. जो भिक्षु शय्यातर पिंड ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 47. जो भिक्षु शय्यातरपिंड भोगता है या भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-आगमों में तथा व्याख्याग्रन्थों में अनेक दोषों की सम्भावना से शय्यातरपिंड के निषेध पर विशेष बल दिया है। यहां भी विशेषता व्यक्त करने के लिये इन दोनों सूत्रों में प्रायश्चित्तविधान किया गया है और कुल 4 सूत्रों (46-49) में इसके प्रायश्चित्त का प्ररूपण किया गया है तथा-ठाणांगसूत्र के पांचवें स्थान में गुरु प्रायश्चित्त स्थान के संग्रहीत बोलों में भी इसका कथन है / अर्थभेद या प्रयोगभेद से शय्यादाता के 5 पर्यायवाची शब्द हैं, यथा-१. सागारिक, 2. शय्याकर, 3. शय्यादाता, 4. शय्याधर, 5. शय्यातर। प्रस्तुत सूत्र में "सागारिक" शब्द का प्रयोग हुआ है / अन्य प्रागमों में शय्यातर व सागारिक शब्द का प्रयोग भी हुअा है। भाष्य में इस विषय का विभाजन नव द्वारों में करके विस्तारपूर्वक कहा गया है, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है१. शय्यातर कौन होता है ? 'प्रभु और प्रभुसंदिष्ट, शय्यातर होता है। इसी प्राशय का कथन आचारांगसूत्र में भी है यथा-'जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए' जो मकान का मालिक है या जिस के अधिकार में मकान है अर्थात् जो अधिष्ठाता है / उसकी आज्ञा लेकर ठहरना चाहिए। बहत्कल्पसूत्र उ. 2 में बताया है कि मालिक भी अनेक हो सकते हैं और अधिष्ठाता भी अनेक हो सकते हैं / उनमें से किसी एक की आज्ञा लेकर उसे शय्यातर मानना और उसकी वस्तु को शय्यातरपिंड समझ कर ग्रहण नहीं करना / अन्य अधिष्ठाताओं या मालिकों के यहां से आहारादि लिये जा सकते हैं। 2. शय्यातरपिंड 12 प्रकार का होता है 1. अशन, 2. पान, 3. खाद्य, 4. स्वाद्य, 5. वस्त्र, 6. पात्र, 7. कंबल, 8. रजोहरण, 9. सूई, 10. कतरणी, 11. नखछेदनक, 12. कर्णशोधनक / यहां औषध भेषज की अलग विवक्षा नहीं की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org