________________ प्रथम उद्देशक] [15 3. नखछेदनक को नख काटने के योग्य बनाना / 4. कर्णशोधनक को मृदुस्पर्शी बनाना / इस प्रकार चारों उपकरणों का उत्तरकरण होता है / 2. उपकरणचतुष्टय-शरीर व संयम के उपयोगी उपकरणों को साधु अपने पास रख सकता है। जो उपकरण सभी साधुओं के लिए सदा आवश्यक होते हैं वे "ौधिक उपकरण' कहे जाते हैं। ऐसे सभी उपकरणों को सदा साथ में रखने की आज्ञा है / यथा-वस्त्र, पात्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि / वस्त्र, पात्र शरीर के लिए उपयोगी हैं और मुखवस्त्रिका, रजोहरण संयम के उपयोगी हैं। कुछ उपकरण विशेष परिस्थिति के कारण रखे जाते हैं, वे "ौपग्रहिक उपकरण" कहे जाते हैं। वे भी दो तरह के होते हैं--- 1. सदा काम में आने वाले, 2. कभी-कभी काम में आने वाले / 1. चश्मा, लाठी आदि प्रायः सदा काम पाते हैं / अतः ये सदा साथ में रखे जा सकते हैं। 2. कभी-कभी काम में आने वाले उक्त चारों उपकरणों का तो उपरोक्त सूत्रों में कथन है ही, अन्य उपकरणों (छत्र, चर्म आदि) का कथन भी आगमों में प्रसंगानुसार हुआ है। उनमें से सर्वत्र सुलभ उपकरण प्रत्यर्पणीय रूप में लाये जाते हैं, जो कार्य हो जाने पर उसी दिन या कुछ दिनों से लौटा दिये जाते हैं। यद्यपि साधु के लिए अत्यल्प उपधि रखने का विधान है, फिर भी क्षेत्र काल के अनुसार या परिवर्तित शारीरिक स्थितियों के अनुसार कब, कहाँ, किन उपकरणों की आवश्यकता हो जाए और उस समय कदाचित् वहाँ वे उपकरण न मिलें; इस आशय से कांटा निकालने के उपकरण या दंतशोधनक आदि अन्य उपकरण वर्तमान में भी साथ में रखे जाते हैं। ___इसी प्रकार सूत्रोक्त सूई, कतरणी आदि उपकरण भी काल आदि की परिस्थिति से रखे जा सकते हैं, ऐसा इन उत्तरकरण सूत्रों से प्रतीत होता है। निशीथभाष्य गा० 1413-1416 तथा बृहत्कल्पभाष्य गा० 4096-4099 तक आपवादिक परिस्थिति में रखे जाने वाले अनेक औपग्रहिक उपकरण सूचित किये हैं, वे गाथाएं अर्थ सहित उद्दे० 16 सू० 39 के विवेचन में देखें। उन उपकरणों में सूई, कतरणी आदि भी हैं, चर्म-छत्र दंड भी हैं एवं पुस्तकें आदि भी कही गई है / ये उत्तरकरण के सूत्र भी परिस्थिति से साथ में रखे हुए औपग्रहिक उपकरण रूप सूई आदि से ही संबंधित हैं / क्योंकि एक दिन के लिये प्रत्यर्पणीय उपकरण तो देखकर और उपयोगी होने पर ही लाया जाता है / कदाचित् भूल हो भी जाय तो उसे लौटाकर अन्य लाया जा सकता है। किन्तु प्रत्यर्पणीय सूई, कैंची आदि की नोक या धार गृहस्थ से करवाना और गुरुमासिक प्रायश्चित्त का पात्र बनना, ऐसी प्रवृत्ति किसी भी भिक्षु के द्वारा करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org