________________ प्रथम उद्देशक] [21 तरह कराने वाले का या आज्ञा देने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन—जो भिक्षु पात्र-परिष्कार का कार्य जानता हो तो उसे स्वयं ही कर लेना चाहिए तथा आवश्यक हो तो अन्य भिक्षु का कार्य भी कर देना चाहिए। किन्तु गृहस्थ से नहीं कराना चाहिए तथा किसी साधु को गृहस्थ से कराने की आज्ञा भी नहीं देनी चाहिए / परिघट्टावेइ आदि---"परिघट्टणं-निम्मावणं, संठवणं-मुहादीणं, जमावणं-विसमाणं समीकरणं," 1. परिघट्टावेइ---निर्माण कराना अर्थात् काम पाने लायक बनवाना / 2. संठावेइ-मुख ठीक कराना-योग्य व मजबूत कराना / 3. जमावेइ----विषम को सम कराना / काष्ठ पात्र के मुख पर डोरे आदि बांधना 'संठवण' है, तेल, रोगन, सफेदा, आदि लगाना "परिघट्टण" है। कहीं खड्डा हो उसे भरना, खुरदरापन हो उसे घिसना "जमावण' है। इसी प्रकार मिट्टी के पात्र का तथा तुबे के पात्र का परिकर्म भी समझ लेना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में केवल 'पात्र" शब्द का कथन न करके तीन प्रकार के पात्रों का निर्देश होने से यह स्पष्ट होता है कि साधु को तीन प्रकार के ही पात्र रखना कल्पता है। ऐसा ही कथन आचारांग सूत्र, बृहत्कल्पसूत्र एवं ठाणांगसूत्र में भी है। शुभाशुभ पात्रों के फलों का विधान आदि वर्णन भाष्य में देखना चाहिए। भिक्षु को ऐसे पात्र की ही गवेषणा करनी चाहिये कि जिसमें किसी भी प्रकार का परिकर्म न करना पड़े। दंडादि के परिष्कार कराने का प्रायश्चित्त 40. जे भिक्खू दंडयं बा, लठ्ठियं वा, अवलेहणियं वा, वेणुसूइयं वा, अण्णउथिएणं वा गारथिएण वा, परिघट्टावेइ वा, संठावेइ वा, जमावेइ वा, अलमप्पणो करणयाए सुहुमवि नो कप्पइ, जाणमाणे, सरमाणे, अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ / 40. स्वयं करने में समर्थ हो तो किंचित् भी गृहस्थ से कराना नहीं कल्पता है, यह जानते हुए, स्मृति में होते हुए या करने में समर्थ होते हुए भी जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेहनिका और बांस की सूई का परिघट्टण, संठवण और जमावण अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से करवाता है या अन्य साधु को करवाने की आज्ञा देता है अथवा गृहस्थ से करवाने वाले का या आज्ञा देने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन-सूत्र 39 के विवेचन के अनुसार इस सूत्र का विवेचन भी जानना किंतु पात्र साधु की "पौघिक उपधि" है, उनको सभी साधु हमेशा के लिये अपने पास रखते हैं। इस सूत्र में कथित उपकरण "प्रौपग्रहिक उपधि" हैं अर्थात् इन्हें जिस साधु को जितने समय के लिये आवश्यक हो उतने समय के लिये गुरु की आज्ञा लेकर रख सकता है। बिना विशेष परिस्थिति के ये औपग्रहिक उपकरण नहीं रखे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org