________________ [4 दूसरा उद्देशक] क्षेत्र से अकृत्स्न-सर्वत्र सुलभ वस्त्र, काल से अकृत्स्न-सर्वजनभोग्य वस्त्र, भाव से अकृत्स्न-अल्पमूल्य वाला और प्राकर्षक वर्ण रहित वस्त्र / अभिन्न वस्त्र धारण का प्रायश्चित्त 24. जे भिक्खू अभिण्णाई वत्थाई धरेइ, धरतं वा साइज्जइ / 24. जो भिक्षु अभिन्न वस्त्र धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है, (उसे लधुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-पूर्व सूत्र में "कृत्स्न वस्त्र लेने का तथा रखने का प्रायश्चित्त कहा है, इस सूत्र में अभिन्न" वस्त्र लेने व रखने का प्रायश्चित्त कहा है। यहां अभिन्न का अर्थ 'अखण्ड' है। अखण्ड वस्त्र लेने से तथा रखने से निम्न दोष होते हैं१. विधिपूर्वक वस्त्र की प्रतिलेखना न होना। 2. अधिक भार वाला वस्त्र होना। 3. वस्त्र का चुराया जाना आदि / इसलिए साधु-साध्वियों को प्रागमोक्त प्रमाणानुसार आवश्यक वस्त्र लेने चाहिये। पात्रपरिकर्म-प्रायश्चित्त 25. जे भिक्खू लाउययायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा, सयमेव परिघट्ट इ वा, संठवेह वा जमावेइ वा परिघट्टतं वा संठवतं वा जमातं वा साइज्जइ / / 25. जो भिक्षु तुबपात्र, काष्ठपात्र, मृत्तिकापात्र का परिघट्टन, संठवण और "जमावण" स्वयं करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन-शब्दार्थ आदि प्रथम उद्देशक सूत्र 30 में देखें। साधु-साध्वियों का स्वाध्याय ध्यानादि सभी प्रकार की आराधनाएं यथासमय करने में संलग्न रहना चाहिए, अनिवार्य परिस्थिति के बिना सभी प्रकार के पात्रपरिकर्म नहीं करने चाहिए, क्योंकि परिकर्म करना भी एक प्रकार का प्रमाद ही है। ____ अत्यावश्यक परिकर्म विवेक पूर्वक करना चाहिए, अविवेक से परिकर्म करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है। दण्ड आदि के परिकर्म करने का प्रायश्चित्त 26. जे भिक्खू दंडयं वा, लट्ठियं वा, अवलेहणियं वा, वेणुसूइयं वा, सयमेव परिघट्ट इ वा, संठवेइ वा, जमावेइ वा, परिघट्टतं वा, संठवेंतं वा जमावेतं वा साइज्जइ / 26. जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेहनिका और वांस की सूई का "परिघट्टण" "संठवण" "जमावण" स्वयं करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org