________________ दिया। संघ और संघनायक की अवहेलना करना भी महान् अपराध है। एक जैनाचार्य ने तो यहां तक लिखा है कि जब तीर्थकर समवसरण में विराजते हैं तब 'नमो संघस्स' कहकर संघ की अभिवन्दना करते हैं। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं ने बहुत ही सतर्कता रखी है कि कोई भी प्रयोग्य पात्र दीक्षा ग्रहण न करे। क्योंकि अयोग्य पात्र के संघ में प्रवेश हो जाने से दुराचार बढ़ सकता है / जैन और बौद्ध श्रमण और श्रमणियों की आचारसंहिता में अनेक स्थानों पर समानता है और प्रायश्चित्त-व्यवस्था में भी अनेक स्थानों पर समानता है। प्रायश्चित्त की जो सचियां दोनों परम्पराओं में हैं उसमें भी काफी समानता है। यह सत्य है कि बौद्ध परम्परा मध्यममार्गीय रही इसलिए उसकी आचारसंहिता भी मध्यम मार्ग पर ही आधारित है। जैन परम्परा उग्र और कठोर साधना पर बल देती रही है। इसलिए उसकी प्राचारसंहिता भी कठोरता को लिये हुए है / विशेषता यह है कि जनशासन में परिस्थिति के अनुसार अपराध को देखकर प्रायश्चित्त दिया जाता है। यदि कोई साधक स्वेच्छा से अपराध करता है, बार-बार अपराध करता है, अपराध करके भी गुरुजनों के समक्ष उस अपराध को स्वीकार नहीं करता या माया का सेवन करता है तो उसके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था थी और वही अपराध अनजान में या परिस्थिति विशेष के कारण हो गया है। गुरुजनों के समक्ष निष्कपट भाव से यदि वह आलोचना करता है / अपराध को स्वीकार करता है तो उसको प्रायश्चित्त कम दिया जाता है। पर बौद्धशासन में इस प्रकार प्रायश्चित्त की व्यवस्था नहीं थी। जैनशासन में जो दस प्रायश्चित्त हैं उनमें से पालोचना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग प्रादि ऐसे प्रायश्चित्त हैं जो साधक को प्रातःकाल और सन्ध्याकाल करने होते हैं। गुरु के समक्ष उन पापों को निवेदन करने होते हैं। पर बौद्धशासन में इस प्रकार प्रतिदिन पालोचना, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग करने का और प्रायश्चित्त से मुक्त होने का आवश्यक नियम नहीं था। वहां तो पन्द्रहवें दिन उपोसथ के समय पातिमोक्ख नियमों का वाचन होता था अतः बौद्धसंघ में अपराध की सूचना पन्द्रह दिन के पश्चात् मिलती थी और वर्ष में एक बार प्रवारणा के समय देखा हुमा, सुना हुआ और शंका किये हुए अपराध की अन्वेषणा होती थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपराध करना मानव का स्वभाव है / जरा-सी असावधानी से स्खलनाएं हो जाती हैं पर उन स्खलनामों की विशुद्धि हेतु जैन और बौद्ध परम्परा में जो प्रायश्चित्तविधान हैं उनमें सहजता है, सुगमता है। पर वैदिक परम्परा के प्रायश्चित्तविधानों में दण्डव्यवस्था भी सम्मिलित हो गई। जिसके फलस्वरूप अंगछेदन आदि का भी विधान हुआ / जबकि जैन और बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के विधान नहीं हैं। अपराध व प्रायश्चित्त विधान : वैदिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति की एक धारा वैदिक परम्परा है। एक ही धरती पर श्रमणसंस्कृति और वैदिकसंस्कृति धाराएं प्रवाहित हई हैं। वैदिकसंस्कृति के महामनीषियों ने भी पापपंक से मुक्त होने के लिए विविध विधान किये हैं। ऋग्वेद के महर्षियों के अन्तर्मानस में भी पापरहित होने की प्रबल भावना पाई जाती है। पापों की संख्या, उनके विविध प्रकारों के सम्बन्ध में विभिन्न दष्टियों से चिन्तन किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया कि बुद्धिमान या विज्ञों के लिए सात मर्यादाएं बताई गई हैं। उनमें से किसी एक का भी जो अतिक्रमण करता है वह पापी है।' तैत्तिरीयसंहिता' शतपथब्राह्मण और अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्राह्मणहत्या को सबसे बड़ा पाप माना है।३ काठक 1. ऋग्वेद 10/5/6 2. तैत्तिरीयसंहिता (2/5/9/2, 5/3/12/1-2) 3. शतपथब्राह्मण (13/3/1/1) काठक (13/7) >> ( 59 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org