________________ बूझकर किये गये पापों को प्रायश्चित्त नष्ट नहीं करता अपितु पापी प्रायश्चित्त कर लेता है तो अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आ जाने के योग्य हो जाता है। मनु ने भी लिखा है-जब तक प्रायश्चित्त नहीं कर लेता तब तक उसे / विज्ञजनों के सम्पर्क में नहीं आना चाहिए। स्मृतियों में यत्र-तत्र पापमोचन के लिए प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है / गौतमधर्मसूत्र, वसिष्ठस्मृति, मनुस्मृति,४ याज्ञवल्क्यस्मृति में उन महामनीषियों ने माता, बहिन, पुत्रवधू आदि के साथ व्यभिचार सेवन करने वाले को अण्डकोष एवं लिंग काट दिये जाने पर दक्षिण-दिशा में या दक्षिण-पश्चिम दिशा में तब तक चलते रहना है जब तक उसका शरीर भूमि पर लुढ़क न पड़े। आचार्य मनु ने लिखा है कि चोर को कोई मूसल या गदा या दुधारी-शक्ति जो एक प्रकार की बरछी होती थी अथवा लोहदण्ड लेकर राजा के पास जाना चाहिए और अपने अपराध की घोषणा करे। राजा के एक बार मारने से वह मृत हो जाय या अर्धमृत होकर जीवित रहे तो वह चोरी के अपराध से मुक्त हो जाता है। वैदिक परम्परा में प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य अत्यधिक विशाल रहा है / इसका कारण यह था कि प्राचीन युग में प्रायश्चित्तों का जन-साधारण में बड़ा महत्त्व था। देखिए, गौतमधर्मसूत्र के 28 अध्यायों में से 10 अध्याय में प्रायश्चित्त का वर्णन है। वसिष्ठधर्मसूत्र में जो 30 अध्याय मुद्रित हुए हैं, उनमें से 9 अध्याय प्रायश्चित्त सम्बन्धी वर्णन से भरे पड़े हैं। मनुस्मृति में कुल 222 श्लोक प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति अध्याय 3 में 1009 श्लोक हैं। उसमें 122 श्लोक प्रायश्चित्त पर आधारित हैं। शातातपस्मृति के 274 श्लोकों में केवल प्रायश्चित्त का ही वर्णन है। उतने ही पुराणों में भी प्रायश्चित का उल्लेख हआ है। जैसे-अग्निपुराण (अध्याय 168-174) गरुडपुराण 52, कूर्मपुराण (उत्तरार्ध 30-34), वराहपुराण (131-136), ब्रह्माण्डपुराण (उपसंहारपाद अध्याय 9), विष्णुधमोत्तरामृत (2, 73, 3/234-237) में प्रायश्चित्तों का वर्णन है / मिताक्षर, अपराकं पाराशरमाधवीय प्रभात टीकानों में भी विस्तार से प्रायश्चित्त के ऊपर चिन्तन किया गया है। इनके अतिरिक्त प्रायश्चित्तप्रकरण, प्रायश्चित्तविवेक, प्रायश्चित्ततत्त्व, स्मृतिमुक्ताफल (प्रायश्चित्त वाला प्रकरण), प्रायश्चित्तसार, प्रायश्चित्तमयूख, प्रायश्चित्तप्रकाश, प्रायश्चित्तेन्दुशेखर में प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन है। यह भी स्मरण रखना होगा कि सभी व्यक्तियों के लिए एक समान प्रायश्चित्त नहीं था। समान अपराध होने पर भी प्रायश्चित्त देने में अन्तर था। प्रायश्चित्तों की कठोरता और अवधि व्यक्ति के द्वारा प्रथम बार अपराध करने पर या अनेक बार अपराध करने पर प्रायश्चित्त प्रदान करने वाली एक परिषद होती थी। जो अपराधी के अपराध की गुरुता एवं स्वभाव को देखकर उसके अनुसार प्रायश्चित्त की व्यवस्था करते। प्रायश्चित्त के मुख्य चार स्तर थे। (1) परिषद् के पास जाना या (2) परिषद द्वारा उचित प्रायश्चित्त उद्घोष, (3) प्रायश्चित्त का सम्पादन, (4) पापी के पाप की मुक्ति का प्रकाशन / 1. ममुस्मृति 11/47 गौतमधर्मसूत्र 23/10-11 वसिष्ठस्मृति 20/13 मनुस्मृति 91/104 याज्ञवल्क्यस्मृति 3/259 6. मनुस्मृति 8/314-315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org