________________ रोगियों के लिए, वर्षा से पीड़ित व्यक्तियों के लिए व महमानों के लिए जो भोजन राजकूलों में बनता है उसे लेने के लिए निषेध किया है और लेने पर गुरु चौमासी का प्रायश्चित्त बताया है। दण्डधर, दण्डरक्षका, दोबारिक, वर्षधर, कंचुकिपुरुष और महत्तर प्रभति व्यक्ति अन्त:पुर की सुरक्षा के लिए नियुक्त रहते थे। राजा-रानी को देखने के लिए जाने का भी निषेध है। शिकार प्रादि के लिए गये हुये राजा का आहार ग्रहण न करें। जहां राजा भोजन करने गये हों वहां भिक्षा के लिए भी न जायें। राजा की सर्वालंकार विभूषित स्त्रियों के पांव तक भी देखने का विचार नहीं करना चाहिए। राज्यसभा के विसजित होने के पूर्व आहार आदि के लिए गवेषणा नहीं करना चाहिए। राजा के निवासस्थान के पास स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / प्राचीन काल में चम्पा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कम्पिल, कोशाम्बी, मिथिला, हस्तिनापुर और राजगह ये दस राजधानियाँ मानी जाती थी। जहां पर सदैव राज्योत्सव होते रहते थे। इसलिए श्रमणों को बार-बार वहां जाने के लिये प्रस्तुत उद्देशक में निषेध किया गया है। निषेध की अवहेलना करने पर गुरु चातुर्मासी प्रायश्चित्त का विधान है। विस्तारभय से हम उन राजधानियों का परिचय यहां नहीं दे रहे हैं। अतीत काल में उनकी अवस्थिति कहां थी? वर्तमान में उनकी अवस्थिति कहाँ है, प्रस्तुत उद्दे शक में राजपिण्ड के अतिरिक्त राजा से सम्बन्धित अनेक प्रसंगों का भी प्रायश्चित्त / इसका मल कारण यही है कि आज्ञा की अवहेलना के साथ ही अन्य अनेक हानियाँ भी हो सकती हैं। दसवां उद्देशक दसवें उद्देशक में 41 सूत्र हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 47 सूत्र भी मिलते हैं। जिन पर 2606-3275 गाथाओं का भाष्य है / आचार्य श्रमण संघ का अनुशास्ता है। अनन्त आस्था का केन्द्र है। तीर्थकर के अभाव में आचार्य ही तीर्थ का संचालन करता है। अतः उसके प्रति अत्यधिक बहमान रखना प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है। आचार्य के प्रति बहुमान युक्त शब्दों का ही प्रयोग होना चाहिए। जो भिक्षु आचार्य आदि को रोष युक्त वचन बोलता है, स्नेह रहित रुक्ष वचन बोलता है, आसातना करता है, उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। दशाश्रुतस्कन्ध में 33 आसातनाओं का निर्देश किया गया है। भाष्य में आसातनामों के अपवाद का भी उल्लेख है / जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव विवेक पर आधारित हैं। अपवाद में जैसे मार्ग में अत्यधिक कांटे बिछे हुए हों, उन कांटों को अलगथलग करने के लिए शिष्य गुरु से भी आगे चलता है तो पासातना नहीं है। प्रस्तुत उद्देशक में अनन्तकाय संयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध किया गया है। आधाकर्मी आहार का निषेध किया गया है। आधाकर्म उपधि का भी निषेध है। श्रमणों को लाभालाभ निमित्त नहीं बताना चाहिए। किसी भी निर्ग्रन्थ निन्थीको बहकाना भी नहीं चाहिए और न उनका अपहरण करना चाहिए। न दीक्षार्थी, गृहस्थ, गृहस्थिनी को बहकाना चाहिए / बाहर से पाने वाले श्रमण को आने का कारण जानने के पश्चात् ही आश्रय दे। क्योंकि कहीं से वह लड़ाई-झगड़ा आदि करके तो नहीं आया है, कलह को उपशान्त न करने वाले या प्रायश्चित्त न करने वाले के साथ आहार न करे। उनके साथ आहार करने पर तथा प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विपरीत प्ररूपणा करने पर, सूर्योदय या सूर्यास्त की संदिग्ध स्थिति में भी प्राहार करने पर, रात्रि के समय मुख में आये हुए उद्गाल को निगल जाने पर, ग्लान की विधिपूर्वक सेवा न करने पर, वर्षावास में विहार करने पर, निश्चित दिन पर्युषण न करने पर, अनिश्चित्त दिन पयुर्षण करने पर, पर्युषण के दिन चौविहार उपवास न करने पर, लोच न करने पर, वर्षावास में वस्त्र ग्रहण करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का वर्णन है। दशाश्रतस्कन्ध, उत्तराध्ययन,२ दशवकालिक और अन्य प्रागमों में भी प्रासातना करने का निषेध किया गया है। 1. दशाश्रुतस्कन्ध दशा 1 व 3 2. उत्तराध्ययन प्र. 127 3. दशवकालिक में अध्ययन 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org