________________ अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित जो राजा राज्य का उपभोग करता है, उसका पिण्ड ग्रहण नहीं करना चाहिए / अन्य राजाओं के लिए नियम नहीं है। यदि दोष की संभावना है तो ग्रहण नहीं करना चाहिए और निर्दोष है तो ग्रहण किया जा सकता है।' राजपिण्ड का तात्पर्य राजकीय भोजन से है। राजकीय भोजन सरस, मधुर व मादक होता है, जिसके सेबन से रसलोलुपता बढ़ने की सम्भावना रहती है। ऐसा सरस आहार सर्वत्र सुलभ नहीं होता / अतः रसलोलुप बनकर मुनि कहीं अनेषणीय आहार ग्रहण न करे इसीलिए राजपिण्ड का निषेध किया है। एषणाशुद्धि ही प्रस्तुत विधान की आत्मा है। यदि कोई इस विधान को विस्मृत करके राजपिण्ड को ग्रहण करता है या राजपिण्ड का उपयोग करता है तो श्रमण को चातर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। 2 राजपिण्ड के निषेध के पीछे अन्य तथ्य भी रहे हुए हैं। जिनका उल्लेख निशीथभाष्य और चणि में किया गया है। राजभवन में प्रायः सेनापति आदि का आवागमन रहता है। कभी शीघ्रता प्रादि के कारण श्रमण के चोट लगने की और पात्रादि फूटने की भी वना रहती है। वे अपशकन भी समझ सकते हैं अतः राजपिण्ड को अनाचीर्ण माना है।" भगवान् महावीर और ऋषभदेव के श्रमणों के लिए ही राजपिण्ड का निषेध है पर बावीस तीर्थंकरों के श्रमणों के लिए नहीं। राजपिण्ड में चार प्रकार के प्राहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण.-ये आठ वस्तुएं परिगणित की गई हैं और पाठों ही अग्राह्य मानी हैं।" नौवां उद्देशक नौवें उद्देशक में 25 सूत्र हैं। जिन पर 2496-2605 गाथाओं में भाष्य लिखा है। इस उद्देशक में भी राजपिण्ड ग्रहण करने का निषेध किया गया है। श्रमण को राजा के अन्तःपुर में प्रवेश नहीं करना चाहिए / भाष्यकार ने तीन अन्तःपुरों का उल्लेख किया है-जीर्ण अन्तःपुर, नवप्रन्त:पुर और कन्या-अन्त:पुर / अन्त:पुर में एक से एक सुन्दर स्त्रियों रहती थी। राजा अन्तःपुर को अधिक से अधिक समृद्ध और सुन्दर बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में वद्धा स्त्रियों को और नपुसकों को अन्तःपुर की रक्षा के लिए तैनात रखें ऐसा विधान किया है। अन्तःपुर में सगे-सम्बन्धी या नौकर-चाकर के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति प्रवेश नहीं करता था। राजा अन्तःपुर की सुरक्षा अत्यधिक सावधानी से करता था। श्रमण के अन्त:पुर में जाने से राजा के अन्तर्मानस में कुशंकाएँ उत्पन्न होना स्वाभाविक था, अतः श्रमण के लिए अन्तःपुर में जाने का निषेध किया गया है। स्वयं श्रमण तो अन्तःपुर में प्रवेश न करे किन्तु अन्तःपुर के द्वार पर जो महिला नियुक्त की गई हो उससे भी आहारादि मंगवाना और ग्रहण करना निषिद्ध है। राजा के द्वारपाल, अन्य अनुचर, सैनिक, दास, दासी, घोड़ों व हाथी के निमित्त, अटवी के यात्रियों के लिए, दुर्भिक्ष और दुष्काल पीड़ित व्यक्तियों के लिए, गरीब व्यक्तियों के लिए, * 1. निशीथभाष्य गा. 2487 चूर्णि 2. निशीथ९।१२ 3. (क) कल्पार्थबोधिनी, कल्प 4, पृ. 2 (ख) कल्प समर्थन 10.1 निशीथभाष्य, गा. 2503-2510 दशवकालिक 33 6. (क) कल्पलता टीका (ख) कल्पद्रुमकलिका, पृ. 2 7. कल्पसमर्थन, गा.११, प. 2 * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org