________________ अक्सन, कशील, संसक्त, नित्यक इन पांच प्रकार के श्रमणों को अपने सन्त को देना और लेना / अपकाय, पृथ्वीकाय प्रभति सचित्त पदार्थों से लिप्त हाथों द्वारा प्राहार आदि लेना। शरीर परिकर्म करना / सन्ध्या के समय तीन उच्चार-प्रश्रवण भूमि का प्रतिलेखन न करना / संकीर्ण स्थान में मल-मूत्र का विसर्जन करना / मल-मूत्र के त्याग करने के पश्चात उसका शुद्धिकरण न करना। प्रायश्चित्त वहन करने वाले के साथ भिक्षा के लिए जाना इत्यादि विषयों पर प्रायश्चित्त का चिन्तन किया गया है और यह कार्य न करने के लिए निषेध किया गया है। उसके लिए मासिक उद्घातिक परिहारस्थान अर्थात् लघमासिका (मास-लघु) प्रायश्चित्त का विधान है। श्रमण और श्रमणियों को अपनी साधना के प्रति तल्लीन रहना चाहिए। साधना को विस्मृत कर यदि राजा आदि को वश में करने के लिए प्रयास करेगा तो साधना में बाधाएँ उपस्थित होंगी। राजा आदि जहाँ प्रसन्न होते हैं वहाँ वे शीघ्र ही नाराज भी हो जाते हैं। इसलिए प्रतिकूल होने पर उपसर्ग भी दे सकते हैं। अतः प्रस्तुत आगम में उन्हें प्रसन्न करने के लिए और प्राकर्षित करने के लिए निषेध किया गया है। साधक को अपनी मस्ती में ही रहकर के साधना करनी चाहिए। प्रस्तुत उद्देशक में साधक को विवेकयुक्त प्रवृत्ति करने का संकेत किया है। श्रामण्य जीवन का सार क्षमा है। क्रोध में विचारक्षमता और तर्कशक्ति प्राय: शिथिल हो जाती है। क्रोध मानसिक आदेश है / उस आवेश से शत्रुता अन्म लेती है और उससे अनुज्ञा ग्रहण करने का संकल्प होता है। कलह के मूल में कषाय है / अतः कलह करने का और पुराने कलह को पूनः जगाने का निषेध किया है। दियासलाई दूसरों को जलाने के पूर्व स्वयं जल जाती है। दूसरा जले या न जले पर वह स्वयं तो जलती ही है। वैसे ही कलह करने वाला स्वयं कर्मबन्धन करता ही है / कलह पाप है अतः उससे साधक को बचना चाहिए। श्रमणों को अट्टहास करने का भी निषेध किया गया है / श्रमण का अनमोल समय स्वाध्याय और ध्यान में लगाने का है। हंसी-मजाक और अट्टहास से कई बार बात-बात में कलह हो जाता है। द्रौपदी के खिल-खिलाकर हंसने का परिणाम ही महाभारत का युद्ध है। इस प्रकार चतुर्थ उद्देशक में बताया है कि श्रमणों को वे प्रवृत्तियों नहीं करनी चाहिए जिससे साधना का मार्ग धुमिल हो / मल-मूत्र का विसर्जन भी ऐसे स्थान पर नहीं करना चाहिए जहाँ पर जीवों की विराधना होने की सम्भावना हो। साथ ही लोकापवाद होने की सम्भावना हो। पांचवां उद्देशक पांचवें उद्देशक में 52 सूत्र हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 77 सूत्र भी प्राप्त होते हैं। जिन पर 18952194 गाथाओं में सविस्तृत भाष्य है। सर्वप्रथम सचित्त वृक्ष के मूल के निकट बैठकर कायोत्सर्ग करना, बैठना, खड़ा रहना, शयन करना, आहार करना, लघुशंका करना, शौच आदि करना और स्वाध्याय आदि करने का निषेध है। अपनी चादर अन्य तीथिक या गृहस्थ से सिलाने का, मर्यादा से अधिक लम्बी चादर रखने का भी निषेध है। स, नीम आदि के पत्तों को प्रचित्त पानी या शीत पानी से धोकर रखने का निषेध है। पादपोंछन, दण्ड, यष्टि, सूई, लौटाने योग्य वस्तुओं को नियत अवधि के भीतर लौटा देने का विधान है। सन, कपास आदि काटने का, सचित्त रंगीन और विविध रंगों से आकर्षक दण्ड बनाने और रखने का, मुख, दन्त, ओष्ठ, नासिका आदि को वीणा के समान बजाने का निषेध है। औद्देशिक उद्दिष्ट शय्या का उपयोग करने का, रजोहरण प्रमाण से अधिक बड़ा बनाना, फलियां सूक्ष्म बनाना, फलियों को प्रापस में सम्बद्ध करना। अविधि से बांधकर रखना / अनावश्यक एक भी बन्धन कराना और आवश्यक भी तीन बन्धन से अधिक बन्धन करना। पाँच प्रकार के अतिरिक्त अन्य जाति के रजोहरण बनाना दूर रखना / पाव आदि से दबाना, सिर के नीचे रखना इत्यादि सभी प्रवृत्तियों का लघमासिक प्रायश्चित्त पाता है। अतः साधक को इन सब प्रवत्तियों से बचना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org