________________ मार्ग कण्टकाकीर्ण हो। सर्प, भयंकर सर्दी, रुग्ण अवस्था, असं की व्याधि से पीड़ित, सुकुमाल आदि हो या पैरों में जखम आदि हो तो विशेष परिस्थिति में चर्म उपकरणों का उपयोग किया जा सकता है। पर उत्सर्ग मार्ग में नहीं। नित्य अग्र-पिण्ड, दान-पिण्ड आदि का निषेध है। भिक्षा के पूर्व या बाद में दाता की प्रशंसा करना / भिक्षा के लिए समय से पूर्व गृहस्थों के घरों में जाना / अन्यतीथिक के साथ, गहस्थ के साथ, पारिहारिक व अपारिहारिक के साथ भिक्षा के लिए जाना। इनके साथ स्वाध्याय भूमि और उच्चार-प्रश्रवण भूमि में प्रवेश करना। इन तीनों के साथ ग्रामानुग्राम विहार करना / मनोज्ञ आहार पानी का उपयोग करना, अमनोज्ञ को परठना, बचा हुआ आहार साम्भोगिक साधुओं को पूछे बिना ही परठना / सागारिक-पिण्ड ग्रहण करना व उसका उपयोग करना / सागारिक के यहाँ-बिना घर जाने भिक्षा के लिए जाना। शय्या संस्तारक की अवधि का शेषकाल और वर्षाकाल में उल्लंघन करना। वर्षा से भीगते हुए शय्या संस्तारक को छाया में न रखना। दूसरी बार बिना आज्ञा लिये अन्यत्र ले जाना / प्रात्यहारिक शय्या संस्तारक को बिना लोटाये विहार करना। शय्या संस्तारक गुम हो जाने पर उसकी अन्वेषणा न करना। अल्प उपधि की भी प्रतिलेखना न करना। इस प्रकार दूसरे उद्देशक में विविध प्रवृत्तियों का लघुमासिक प्रायश्चित्त बतलाया है / इस उद्देशक में जिन बातों का निषेध किया गया है उन बातों के निषेध का वर्णन बृहत्कल्प, प्राचारांग, दशवकालिक, पिण्डनियुक्ति आदि में भी है। इन सब प्रायश्चित्त के योग्य स्थानों का लघुमास प्रायश्चित्त का निरूपण द्वितीय उद्देशक में हुआ है। विवेचन में इन सभी विषयों पर संक्षिप्त और सारगर्भित प्रकाश भी डाला है। तृतीय उद्देशक तृतीय उद्देशक में 50 सूत्र हैं। जिन पर 1438-1554 तक भाष्य की गाथाएँ हैं। एक सूत्र से लेकर बारह सूत्र तक धर्मशाला, मुसाफिरखाना, आरामगार या गृहपति के कुल आदि में उच्च स्वर से प्राहार आदि मांगने का, गृहस्वामी के मना करने पर पुनः पुनः उसके घर आहारादि के लिए जाने का, सामूहिक भोज में जाकर अशन पान ग्रहण करने का, पैरों के परिमार्जन, परिमर्दन, प्रक्षालन आदि का व शरीर के परिमार्जन, परिमर्दन, संवाहन आदि का निषेध है / बढ़े हुए बाल, नाखून आदि काटने का, विहार करते हुए मस्तक ढकना, श्मशान भूमि में, खदान में, जहां कोयले आदि निर्मित होते हों उस स्थान में, फल संग्रह के स्थान में, सब्जी आदि रखने के स्थान में, उपवन, धप न पाने के स्थान में मलविसर्जन का निषेध है और इन प्रवत्तियों को करने वाले साधक के लिए लघमासिक प्रायश्चित्त का वर्णन है। प्रस्तुत प्रागम के अतिरिक्त आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, प्रश्नव्याकरण आदि में भी अनेक कार्य श्रमणों के लिए प्रकरणीय हैं ऐसा वर्णन प्राप्त होता है। चतुर्थ उद्देशक चतुर्थ उद्देशक में 128 सूत्र हैं। इन सूत्रों पर 1555-1894 माथाओं तक का भाष्य है। इस उद्देशक में राजा को, राजा के रक्षक को, नगररक्षका को, सर्वरक्षक को, ग्रामरक्षक को, राज्यरक्षक को, देशरक्षक को, सीमारक्षक को वश में करना और वश में करने के लिए उनके गुणानुवाद करना / सचित्त धान्य आदि का आहार करना। आचार्य प्रादि की अनुमति के बिना दूध आदि विकृतियाँ ग्रहण करना। स्थापनाकुल जाने बिना भिक्षा के लिए जाना / अविधि से निर्गन्थियों के उपाश्रय में प्रवेश करता। निर्गन्धियों के आने के रास्ते में दण्ड आदि रख देना। नवीन कलह उत्पन्न करना। उपशान्त कलह को पुन: जागृत करना / ठहाका मारकर हंसना। पावस्थ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org