________________ कल्प में जिन दस प्रायश्चित्तों का वर्णन है, वैसा ही वर्णन दिगम्बर ग्रन्थ जयधवला में भी है। प्रायश्चित्त का जो सर्वप्रथम रूप है उसमें साधक के अन्तर्मानस में अपराध के कारण आत्मग्लानि समुत्पन्न होती है / अपराध को अपराध के रूप में स्वीकार कर लेता है। वह विशुद्ध हृदय से अपने द्वारा किये गये अपराध व नियमभंग को प्राचार्य या गीतार्थ श्रमण के समक्ष निवेदन कर उस दोष से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त स्वीकार करता है। पालोचना क्यों और कैसे करनी चाहिए और किनके समक्ष करनी चाहिए, स्थानांग आदि में विस्तार से निरूपण है। "जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप" ग्रन्थ में मैंने विस्तार से लिखा है, अतः विशेष जिज्ञासु उसका अवलोकन करें। विशिष्ट दोषों की विशुद्धि के लिए तप प्रायश्चित्त का उल्लेख है। निशीथ, बहत्कल्प, जीतकल्प और उनके भाष्यों में किस प्रकार का दोष सेवन करने पर किस प्रकार का प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए, यह बताया गया है। प्रस्तुत आगम में तप प्रायश्चित्त के योग्य सविस्तृत सूची दी गई है, और तप प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते हुए मास लघु, मास गुरु, चातुर्मास लघु, चातुर्मास गुरु से लेकर षट्मास लघु और षट्मास गुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। बहत्कल्पभाष्य में मास, दिवस आदि तपों की संख्या के प्रायश्चित्त का विवेचन मिलता है, वह इस प्रकार है यथागुरु-छह मास तक निरन्तर पांच-पांच उपवास गुरुतर-चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास गुरु-एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपवास (तेले) लघु-१० बेले 10 दिन पारणे (एक मास तक निरन्तर दो-दो उपवास) लघुतर-२५ दिन तक निरन्तर एक दिन उपवास और एक दिन भोजन यथालघु-२० दिन निरन्तर आयम्बिल (रूखा-सूखा भोजन) लघुष्वक--१५ दिन तक निरन्तर एकासन (एक समय भोजन) लघुव्वकतर---१० दिन तक निरन्तर दो पोरसी अर्थात् 12 बजे के बाद भोजन ग्रहण यथालघष्यक-पांच दिन निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध आदि रहित भोजन) संक्षिप्त सारांश प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में 55 सूत्र हैं / 497-815 गाथाओं तक का सविस्तृत भाष्य भी है। सर्वप्रथम भिक्षु के लिए हस्तकर्म का निषेध किया गया है। काष्ठ, अंगुली अथवा शलाका आदि से अंगादान के संचालन का निषेध है। अंगादान को तेल, घृत, नवनीत प्रभति से मर्दन करने, शीत या उष्ण जल से प्रक्षालन करने और ऊपर से त्वचा हटाकर उसे सूंघने आदि का निषेध किया गया है। इस निषेध के कारण पर चिन्तन करते हुए आचार्य संघदासगणि ने सिंह, प्रासीविष-सर्प, व्याघ्र और अजगर सादि के दृष्टान्त देकर यह बताने का प्रयास किया है कि जैसे प्रसुप्त सिंह जागृत होने पर जगाने वाले को ही समाप्त कर देता है, वैसे ही अंगादान प्रादि को संचालित करने से तीव्र मोह का उदय हो जाने पर वह साधक भी साधना से च्युत हो सकता है। शुक्र पुद्गल निकालना, सुगन्धित पदार्थों को संघना, मार्ग में कीचड़ आदि से बचने हेतु पत्थर आदि रखवाना, ऊँचे स्थान पर चढ़ने के लिए सीढ़ी रखवाना पानी को निकालने के लिए नाली आदि बनवाना, सुई आदि को तेज करवाना, कैची, नखछेदक, कर्णशोधक आदि को साफ करना, निष्प्रयोजन इन वस्तुओं की याचना करना, अविधि पूर्वक सुई आदि की याचना करना, स्वयं के लिए लाई हुई वस्तु में से दूसरों को देना, वस्त्र सीने के लिए लाई हुई सूई प्रादि से कांटा निकालना। पात्रों को गृहस्थों से ठीक करवाना / वस्त्र पर गृहस्थों से कारी लगवाना / वस्त्र पर तीन से अधिक कारी लगवाना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org