________________ अत: साधक को यह ज्ञात हो जाय कि मैंने दोष का सेवन किया है जो अयोग्य था, तो उसे यथाशीघ्न प्रायश्चित्त लेकर उस दोष की विशुद्धि करनी चाहिए। जो उस दोष की विशुद्धि नहीं करता है वह श्रमण विराधक होता है। अपवाद में दोष का सेवन होता है, पर वह सेवन विवशता के कारण होता है। सेवन करते समय साधक यह अच्छी तरह से जानता है कि यदि मैं अपवाद का सेवन नहीं करूंगा तो मेरे ज्ञान आदि गुण विकसित नहीं हो सकेंगे। उसी दृष्टि से वह अपवाद का सेवन करता है। अपवाद के सेवन करने में सदगुणों का अर्जन और संरक्षण प्रमुख होता है / अपवाद में कषायभाव नहीं होता, किन्तु संयमभाव प्रमुख होता है। इसलिए वह अपवाद' अतिचार की तरह दूषण नहीं है। अतिचार में कषाय का प्राधान्य होने से अधिक कर्मबन्धन होता है। उत्सर्ग और अपवाद में विवेक आवश्यक उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग दोनों ही मार्ग साधक के लिए तब तक श्रेयस्कर हैं जब तक उसमें विवेक की ज्योति जगमगाती हो। मूल मागम साहित्य में उत्सर्ग मार्ग की प्रधानता रही, अपबाद मार्ग का वर्णन आया किन्तु बहुत ही स्वल्प मात्रा में / लेकिन ज्यों-ज्यों परिस्थितियों में परिवर्तन होता गया त्यों-त्यों भाचार्यों ने आगम साहित्य के व्याख्या-साहित्य में अपवादों का विस्तार से निरूपण किया है। अपवादों के निरूपण में कहीं पर अति भी हो गई है जो उस युग की स्थिति का प्रभाव है। हमने बहुत ही संक्षेप में उत्सर्ग व अपवाद के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किया है। उत्सर्ग और अपवाद के मर्म को समझना अत्यन्त कठिन है। जब उत्सर्ग और अपवाद में परिणामीपना और शुद्ध वृत्ति नष्ट हो जाती है तो वह अनाचार बन जाता है / एतदर्थ ही भाष्यकार ने परिणामी, अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्यों का निरूपण किया है। जो वस्तुस्थिति को सम्यक प्रकार से समझता है वही साधक उत्सर्ग व अपवाद मार्ग की माराधना कर सकता है और अपने अनुयायी वर्ग को भी सही लक्ष्य पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित कर सकता है। जब परिणामी भाव नष्ट हो जाता है तो स्वार्थ की वृत्ति पनपने लगती है स्वच्छन्दता बढ़ने लगती है, जिससे साधक वीतरागधर्म की आराधना सम्यक् प्रकार से नहीं कर सकता। बहत्कल्पभाष्य में आचार्य संघदासगणि ने लिखा है कि जितने उत्सर्ग के नियम हैं उतने ही अपवाद के भी नियम हैं। उत्सर्ग मार्ग के अधिकारी के लिए उत्सर्ग, उत्सर्ग है और अपवाद, अपवाद है, किन्तु अपवाद मार्ग के अधिकारी के लिए अपवाद उत्सर्ग है और उत्सर्ग अपवाद है। इस प्रकार उत्सर्ग और अपवाद अपनी-अपनी स्थिति और परिस्थिति के कारण श्रेयस्कर, कार्यसाधक और बलवान हैं। उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का इतना समन्वयपरक सूक्ष्म दृष्टिकोण जैनदर्शन के अनेकान्त की अपनी विशेषता है। उत्सर्ग मार्ग जीवन की सबलता का प्रतीक है तो अपवाद भार्ग जीवन की निर्बल दोनों ही मार्गों में साधक को अत्यन्त जागरूकता रखनी चाहिए। आचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि अपवाद मार्ग का सेवन करने वाला जैसे कोई फोडा पक गया है, उसमें रस्सी पड़ चकी है तो व्यक्ति किस तरह से कम कष्ट हो यह ध्यान रखकर दबाकर मवाद निकालता है और उसी तरह सावधानीपूर्वक अपवाद मार्ग का सेवन किया जाय / सेवन करते समय उसे यह ध्यान रखना होगा कि संयम और व्रत में कम से कम दोष लगे। विशेष परिस्थिति में और कोई मार्ग न हो तो अपवाद का सेवन किया जाय, अन्यथा नहीं। एतदर्थ ही गीतार्थ का उल्लेख है और वही अपवाद का सेवन करने का अधिकारी माना गया है, शेष नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org