________________ इसी तरह अपरिग्रह महाव्रत में चौदह उपकरणों के अतिरिक्त उपकरण रखना आदि भी परिग्रह में ही है। किन्तु पुस्तक, लेखन-सामग्री आदि ज्ञान के साधन रूप समझकर ग्रहण किये जाते हैं।' अतः उन्हें परिग्रह नहीं माना जाता। दशवकालिक आदि में यह स्पष्ट विधान है कि श्रमण किसी गृहस्थ के यहाँ पर न बैठे, क्योंकि बैठना अनाचार माना गया है, किन्तु दशवकालिक में यह भी बताया है कि जो श्रमण अत्यन्त वृद्ध हो चुका है, अस्वस्थ है या जो तपस्वी है वह गहस्थ के घर पर बैठ सकता है। उसे गह-निषिद्या का दोष नहीं लगता। आगम साहित्य में श्रमण के आहार की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट विधान किया है कि वह प्राधाकर्मी आहार ग्रहण नहीं कर सकता। वह पिण्डषणा के नियमों का सम्यक प्रकार से पालन करे। प्राचार्य शीलांक ने सूत्रकृतांगवृत्ति में लिखा है कि अपवाद स्थिति में शास्त्र के अनुसार आधाकर्म आहार का सेवन करता है तो वह साधका शुद्ध है / वह कर्म से लिप्त नहीं होता। निशीथभाष्य में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें यह बताया गया है कि दुभिक्ष आदि की स्थिति में अपवाद मार्ग से श्रमण आधाकर्म आदि आहार ग्रहण कर सकता है। जैन श्रमण के लिए यह विधान है कि वह चिकित्सा की इच्छा न करे।६ रोग हो जाने पर उसे शान्त भाव से सहन करे। किन्तु जब देखा गया कि श्रमण रोग होने पर समाधिस्थ नहीं रह सकता तो उसकी चिकित्सा के सम्बन्ध में भी चिन्तन हआ। श्रमण किस प्रकार वैद्यों के वहां पर जाये, किस प्रकार औषधि आदि ग्रहण करे, भयंकर कुष्ठ आदि रोग होने पर किस तरह उनका उपचार किया जाये आदि पर नियुक्ति, चणि और भाष्य में विस्तार से विवेचन है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि उन अपवादों का सेवन करने पर विरोधियों को टीका-टिप्पणी करने का अवसर न मिले, यदि विरोधी आलोचना-प्रत्यालोचन करेंगे तो उससे जिनधर्म की अवहेलना होगी। अतः उसे गुप्त रखने का भी संकेत किया गया है। अतिचार और अपवाद : एक बात यहां समझनी चाहिए कि अतिचार और अपवाद में अन्तर है। यद्यपि अतिचार और अपबाद में बाह्य दष्टि से दोष सेवन एक सदश प्रतीत होता है, पर अतिचार व अपवाद में बहुत अन्तर है। अतिचार में मोह का उदय होता है और मोह के उदय से या वासना से उत्प्रेरित होकर तथा कषायभाव के कारण उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर जो संयमविरुद्ध प्रवत्ति की जाती है वह अतिचार है और अतिचार से संयम दूषित होता है। 1. निशीथचूणि भाष्य 3, प्रस्तावना-उपाध्याय अमरमुनिजी। 2. दशवकालिक 3-4-6, 8 3. तिहमन्नयरागस्स, निस्सिज्जा जस्स कप्पइ / जराए अभिभूयस्स वाहिस्स तवस्सिणे / / -~दश. 6.60 4. सूत्रकृतांग 2-5, 6-9 निशीथभाष्य गा. 2684 6. (क) उत्तराध्ययन 2-23 (ख) दशवकालिक 3-4 (ग) निशीथसूत्र 3-28-40; 13 // 42-45 7. निशीथणि गा. 345-47 8. निशीथचूणि भा. 3 प्रस्तावना (उपा. अमरमुनि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org