________________ छठा उद्देशक छठे उद्देशक में 78 सूत्र हैं। जिन पर 2195-2286 गाथाओं तक का सविस्तृत भाष्य है / कुशीलसेवन की भावना से किसी भी स्त्री का अनुनय-विनय करना, हस्तकर्म करना, अंगादान संचालन तथा कलह आदि करना। चित्र-विचित्र वस्त्र रखना, धारण करना। पौष्टिक आहार करना प्रादि कार्य करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए साधक को सभी प्रवृत्तियों के लिए निषेध किया गया है / दिल में जब विकार भावनाएं जागृत होती हैं तब कामेच्छा से व्यक्ति किस-किस प्रकार की प्रवृत्तियां करता है, उसका मनोवैज्ञानिक वर्णन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है / सातवां उद्देशक सातवें उद्देशक में 92 सूत्र हैं। जिस पर 2287-2340 गाथाओं में भाष्य लिखा गया है। प्रस्तुत अध्याय में भी मैथुन सम्बन्धी निषेध बताया गया है। कामेच्छा के संकल्प से उत्प्रेरित होकर विविध प्रकार की मालाएँ, विविध प्रकार के कड़े, विविध प्रकार के आभूषण, विविध प्रकार के चर्मवस्त्र बनाना रखना और पहनना, कामेच्छा से स्त्री के अंगोपांग का संचालन करना, शरीर-परिकर्म करना, सचित्त पृथ्वी पर सोना बैठना, परस्पर चिकित्सा मादि करना / पशु-पक्षी के अंगोपांग को स्पर्श करने का निषेध किया गया है। इन प्रवृत्तियों को करने वालों को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। छठे और सातवें दोनों उद्देशकों में कामेच्छा से किए गये कार्यों के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। इनमें कुछ बातें ऐसी भी हैं जो बिना कामेच्छा के भी करनी नहीं कल्पती, जैसे सचित्त भूमि आदि पर बैठना / आठवां उद्देशक पाठवें उद्देशक में 18 सूत्र हैं। जिन पर 2341-2495 गाथाओं तक भाष्य है। धर्मशाला, उद्यान, अट्टालिका, दगमार्ग, शून्यगृह, तृणमूह, पानशाला, दुकान, गोशाला में एकाकी श्रमण, एकाकी महिला के साथ रहे, आहार आदि करे, स्वाध्याय करे, शोचादि साथ जाये, विकारोत्पादक वार्तालाप करे। रात्रि के समय स्त्रीपरिषद् या स्त्री-पुरुषयुक्त परिषद् में अपरिमित कथा करे तथा श्रमणियों के साथ विहारादि करे। उपाश्रय में रात्रि के समय में महिलाओं को रहने देवे, मना न करे / उनके साथ बाहर पाना-जाना करे आदि प्रवृत्तियों का निषेध है / स्त्री संसर्ग का निषेध दशवकालिक उत्तराध्ययन आदि अन्य आगमों में भी यत्र-तत्र है। सर्वत्र साधक को यही प्रेरणा दी गई है कि वह महिलाओं का अधिक सम्पर्क न रखे / अधिक सम्पर्क से साधक च्युत हो सकता है / प्रस्तुत अध्याय में मूर्द्धाभिषिक्त राजा के अनेक प्रकार के महोत्सवों में आहार ग्रहण करने का निषेध है। मूर्धाभिषिक्त राजा जब उत्तरशाला यानी मण्डप में रहता हो तब भी आहार ग्रहण करने का निषेध है। इसी प्रकार अश्वशाला, हस्तिशाला, मन्त्रणागृह, गुप्तविचारगृह आदि में रहे हुए राजा के आहार ग्रहण का निषेध है। पांच सूत्रों में राजपिण्ड ग्रहण करने का निषेध किया है और ग्रहण करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है। आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर राजपिण्ड ग्रहण करने का निषेध है। जिसका राज्याभिषेक हुआ हो वह राजा कहलाता है। उसका भोजन राजपिण्ड है। जिनदासगणि महत्तर के अभिमतानुसार सेनापति, 1. (क) दशवकालिका अगस्त्यसिंहचणि (ख) दशवकालिक जिनदासचूणि 112-13 (ग) कल्पदर्शनम् गा. 9 पृ. 1. (घ) कल्पसूत्र कल्पलता 4 पृ. 2 समयसुन्दर (ङ) कल्पार्थबोधिनी 4 पृ. 2 ( 48 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org