________________ निदोष आहार में सदोष आहार मिला हो, उसे ग्रहण करना / इस प्रकार प्रथम उद्देशक में साधक को सतत जागरूक रहने का सन्देश दिया है। प्रतिपल-प्रतिक्षण साधक को उस प्रकार की प्रवृत्ति करनी चाहिये जो विवेक से मण्डित हो / अविवेकयुक्त की गई छोटी-सी-छोटी प्रवत्ति भी कर्मबन्धन का कारण है। इसलिए सूई आदि नन्हीं-सी वस्तु भी प्रविधि से रखने का निषेध किया है। विवेक में ही धर्म है। यह इन उल्लेखों से स्पष्ट है। यह सत्य है कि महाव्रतों की परिगणना में ब्रह्मचर्य का चतुर्थ स्थान है। पर वह अपनी महिमा और गरिमा के कारण सभी व्रतों में प्रथम है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य के महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है कि जैसे श्रमणों में तीर्थंकर श्रेष्ठ है वैसे व्रतों में ब्रह्मचर्य / एक ब्रह्मचर्य व्रत की जो आराधना कर लेता है वह समस्त नियमोपनियम की आराधना कर लेता है। जितने भी व्रत नियम हैं, उनका मूल प्राधार ब्रह्मचर्य है। वह व्रतों का सरताज है। मुकुटमणि है। अत: ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक को हर क्षण जागरूक रहकर उस नियम का दृढ़ता से पालन करना बहुत ही आवश्यक है। प्रस्तुत आगम के प्रारम्भ में सर्वप्रथम यह सूचन किया गया है। दूसरा उद्देशक दूसरे उद्देशक में 57 सूत्र हैं। किसी-किसी प्रति में 59 सूत्र भी मिलते हैं। जिस पर 816 से 1437 गाथाओं तक का भाष्य है। पादपोंछन के सम्बन्ध में प्रथम आठ सूत्रों में चिन्तन किया गया है। पुराना और फटे हुए कम्बल का एक हाथ लम्बा-चौड़ा खण्ड पादपोंछन कहा जाता है। विवेचनकार पण्डित मुनि श्री ने इस पर विस्तार से विवेचन लिखा है और उस विवेचन में उन्होंने स्पष्ट किया है कि पादपोंछन और रजोहरण ये दोनों पृथकपृथक् उपकरण हैं। रजोहरण से परिमार्जन होता है और पादप्रोंछन से केवल पैर आदि पोंछे जाते हैं। दोनों के अर्थ और उपयोगिता भिन्न-भिन्न हैं। पादपोंछन से पैर पोंछने के अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर मलविसर्जन हेतु उस वस्त्र का उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता होने पर उस पर बैठा भी जा सकता है, पर रजोहरण आदि का उपयोग इस प्रकार नहीं होता / पादपोंछन आवश्यकता होने पर स्वयं के पास न हो तो श्रमण दूसरे से ले सकता है। पर रजोहरण तो स्वयं का ही होता है। जिनकल्पी श्रमणों को भी रजोहरण रखना आवश्यक माना गया है। रजोहरण फलियों के समूह से बना हआ एक प्रोधिक उपकरण है जबकि पादपोंछन वस्त्र का एक टुकड़ा होता है। उसे कभी काष्ठदंड में बांध कर भी रखा जाता है। यह औपग्रहिक उपकरण है। उस काष्ठदंड युक्त पादप्रोंछन औपग्रहिक उपकरण की जिस क्षेत्र में और जितने समय के लिए आवश्यकता हो, उतने समय तक रख सकते हैं। आवश्यकता के अभाव में काष्ठदण्ड युक्त पादपोंछन को खोलकर रख लेना चाहिए। जो विधि युक्त बांधा गया हो वही पादत्रोंछन सुप्रतिलेख्य होता है। वह पादपोंछन डेढ़ मास तक अधिक से अधिक रख सकते हैं। यदि रखना आवश्यक हो तो खोलकर और परिवर्तन कर रख सकते हैं। उसके पश्चात् इत्रादि सुगन्धित पदार्थों को संघने का निषेध है। पदमार्ग आदि बनाने का निषेध है। पानी निकालने की नाली, छींके का ढक्कन, चिलमिली आदि बनाने का निषेध है। श्रमण को कठोर भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए / कठोर भाषा के उपयोग से सुनने वाले के अन्तर्मानस में संक्लेश पैदा होता है। भाषा सत्य भी हो और सुन्दर भी हो / जिस भाषा के प्रयोग से दूसरों का हृदय व्यथित हो तो उस प्रकार की भाषा एक प्रकार से हिंसा है। अल्प-असत्य भाषा का प्रयोग भी श्रमण के लिए निषिद्ध है। अदत्तवस्तु ग्रहण करना भी निषिद्ध है। शरीर को सजाना व संवारना बहमूल्यवान श्रेष्ठतम वस्तुओं को धारण करना आदि निषिद्ध है। भिक्षुओं को चर्म रखने का निषेध है। तथापि भाष्यकार ने आपवादिक स्थिति में चर्म धारण करने का जो उल्लेख किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org