Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम अध्ययन : पुण्डरोक
१५
रहा और न उस पार का रहा । (अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने ) वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फँसकर रह गया और दुःखी हुआ । (दोच्चे पुरिसजाए ) दूसरे पुरुष का यही हाल हुआ || ३॥
( अहावरे तच्चे पुरिसजाए ) प्रथम और द्वितीय पुरुष का वर्णन करने के बाद अब तीसरे पुरुष का वर्णन किया जाता है । ( अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म) दूसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर (तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा) उस पुष्करिणी के किनारे खड़ा होकर ( तं महं एवं पउमवरपोंडरीयं पासइ) उस एक विशाल पद्मवरपुण्डरीक ( श्वेत कमल) को देखता है, (अणुपुव्वुट्ठियं जाव पडिरूवं ) जो विशेष रचना से युक्त एवं पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न बड़ा ही मनोहर है । (ते तत्थ दोन्नि पुरिसजाए पासइ) तथा वह वहाँ उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, (तीरं पहीणे पउमवरपोंडरीयं अपत्ते) जो तीर से भ्रष्ट हो चुके हैं, और उस उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके हैं, ( णो हव्वा णो पाराए) तथा जो न इस पार के रहे हैं, न उस पार के, ( जाव सेयंसि णिसन्ने ) किन्तु पुष्करिणी के अधबीच में ही अगाध कीचड़ में फँसकर दुःख भोग रहे हैं । (तए णं से पुरिसे एवं वयासी) इसके पश्चात् उस तीसरे पुरुष ने उन दोनों पुरुषों के लिए इस प्रकार कहा - ( अहो णं इमे पुरिसे अखेयत्रो अकुसला अपंडिया अविपत्ता अमेहावी बाला जो मगत्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गइपरक्कमणू) ओहो ! ये दोनों व्यक्ति तो खेदज्ञ नहीं, कुशल भी नहीं हैं, पण्डित भी नहीं हैं और न जवां मर्द हैं, न बुद्धिमान हैं, ये अभी नादान बालक-से हैं, ये मार्ग पर स्थित नहीं हैं, जिस मार्ग से चलकर जीव अभीष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं जानते । ( जण्णं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एतं पउमदरपोंडरीय उनिक्खिस्सामो) अतएव ये दोनों पुरुष ऐसा समझते हैं कि हम दोनों इस श्रेष्ठ श्वेत कमल को उखाड़कर ले आएँगे, (जो य खलु एवं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खेयन्वं जहा गं एए पुरिसा मन्ने ) परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार उखाड़ लाना इतना सरल नहीं है, जितना कि ये दोनों पुरुष समझते हैं । ( अहं खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविक मग्गस्स गइपरक्कमण्णू) अलबत्ता मैं खेदज्ञ, कुशल, पण्डित, युवक, मेधावी, ज्ञानवान तथा मार्गस्थ, मार्गवेत्ता, मार्ग की गतिविधि एवं पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ । ( अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कट्टु ) मैं इस उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकालकर ही रहूँगा, मैं यह संकल्प करके ही यहाँ आया हूँ | (इइ बुच्चा से पुरिसे तं पुक्खरिणों जावं जावं च णं अभिक्कमे ) यों कहकर उस (तीसरे) पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, (तावं तवं च णं महंते उदए महंते सेये) त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी और
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