Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 474
________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४३३ (त पुवामेव कालं करेंति, करित्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति) वे अल्पायु होने के कारण पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं, मृत्यु प्राप्त करके वे परलोक में जाते हैं। (ते पाणा वि बुच्चंति, तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा) वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं, वे विशालकाय भी होते हैं, किन्तु वे अल्पायु होते हैं, वे संख्या में बहुत होते हैं । (जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। (जाव णो णेयाउए भवइ) अतः श्रावक के प्रत्याख्यान को निविषय कहना न्यायसंगत नहीं है। (भगवं च णं उदाहु) अन्त में भगवान् गौतम स्वामी बोले-(संतेगइया समणोवासगा भवंति) जगत् में कई श्रमणोपासक होते हैं, (तेसि च णं वृत्तपुव भवइ) जो इस प्रकार का संकल्प करते हैं- (णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए) हम मुण्डित होकर गृहस्थ अवस्था को छोड़कर साधुधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं है। (णो खलु वयं चाउद्दसट्टमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह अणुपालित्तए संचाएमो) तथा चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णमासी के दिन प्रतिपूर्ण पौषध पालन करने में भी समर्थ नहीं हैं, (वयं अपच्छिम जाव विहरित्तए णो खलु संचाएमो) एवं हम मृत्यु काल में आमरण अनशनपूर्वक संलेखना संथारा करने में भी समर्थ नहीं हैं, (वयं च णं सामाइयं देसावगासियं पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावता जाव सव्वपाहिं जाव सव्वसहिं दंडे णिक्खित्ते) अतः हम सामायिक तथा देशावकाशिक व्रतों को ग्रहण करेंगे, इसी प्रकार हम प्रातःकाल प्रतिदिन पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में या देशावकाशिक मर्यादाओं को स्वीकार करके उस मर्यादा से बाहर के समस्त प्राणियों को दण्ड देना छोड़ देंगे। (अहं सव्वपाणभूयजीवसहि खेमंकरे असि) मैं समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का क्षेम करने वाला बनूंगा। (तत्थं आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिखित्त) व्रत ग्रहण करने के समय स्वीकृत मर्यादा से बाहर रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं जिन्हें हमने श्रावकव्रत धारण करने के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड देने का त्याग (प्रत्याख्यान) कर दिया है । (तओ आउयं विप्पजहंति विप्पजाहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा) वे प्राणी अपनी आयु को छोड़कर श्रावक द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर के क्षेत्रों (प्रदेशों) में जब वसरूप में उत्पन्न होते हैं। (जेहि समणोवासगस्स आयणसो जाव तेसु पच्चायंति) जिन्हें श्रमणोपासक के व्रत ग्रहण करने के समय से लेकर जीवनपर्यन्त दण्ड देने त्याग किया है । (जेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) तब श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें सुप्रत्याख्यान होता है । (ते पाणावि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, अतः श्रावकों के व्रत को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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