Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

Previous | Next

Page 484
________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ने प्रयोजनवश तो दण्ड देना नहीं छोड़ा है किन्तु बिना प्रयोजन के दण्ड देना छोड़ दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं (तेहि समणोवासगस्स अट्ठाए अणट्ठाए ते पाणा वि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) उन्हें श्रावक प्रयोजनवश ही दण्ड देता है, निष्प्रयोजन दण्ड नहीं देता, इसलिए श्रावक के प्रत्याख्यान को निविषय कहना न्यायोचित नहीं है। (तत्थ जे ते आरेण थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अगदाए दंडे णिक्खित्त) वहाँ जो समीपवर्ती स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश दण्ड देना नहीं छोड़ा है (तओ आउं विप्पजहंति) वे स्थावर प्राणी अपनी आयु को छोड़ देते हैं (विप्पजहित्ता) उस आयु को छोड़कर (तत्थ परेणं जे तस थावरा) वहाँ से दूर देश में जो त्रस स्थावर प्राणी हैं (जेहि समणोवासगस्स) जिनको श्रमणोपासक ने (आयाणसो आमरणंताए) व्रत ग्रहण करने के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त (दंडे णिक्खित्ते) दण्ड देने का प्रत्याख्यान किया है (तेसु पच्चायंति) उनमें उत्पन्न होते हैं (तेहि समणोवासगस्स) उनमें श्रावक का (सुपच्चक्खायं भवइ) सुप्रत्याख्यान होता है (ते पाणा वि जाव अयंपि भेदे) वे प्राणी भी कहलाते हैं और वस भी कहलाते हैं अतः श्रावक के प्रत्याख्यान को (से णो णेयाउए भवइ) निविषय कहना न्यायोचित नहीं है। (तत्थ जे ते परेणं तस थावरा पाणा) वहाँ जो श्रावक के द्वारा व्रत ग्रहण किए हए देश परिमाण से दूरवर्ती तथा अन्य प्रदेश में बस स्थावर प्राणी हैं (जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दण्डे णिक्खित्त) जिनको श्रावक ने व्रतारम्भ से लेकर आयु-पर्यन्त दण्ड देने का त्याग कर दिया है (ते तओ आउं विप्पजहति) वे जीव वहाँ से अपनी आयु पूर्ण कर देते हैं (विप्पजहित्ता) और आयु पूर्ण करके (तत्थ आरेणं जे तसा पाणा) श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश-परिमाण में अर्थात् श्रावक ने जितने क्षेत्र की मर्यादा ग्रहण की है, उस क्षेत्र में रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं (जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्खित्त) जिनको श्रावक ने व्रत ग्रहण करने के समय से लेकर अपनी आयुपर्यन्त अर्थात् जीवन भर दण्ड देने का परित्याग कर दिया है (तेसु पच्चायंति) उनमें उत्पन्न होते हैं (तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है (ते पाणा वि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं, इसलिए श्रावक के व्रत को निर्विषय बताना न्याययुक्त नहीं है। (तत्थ जे ते परेणं तस थावरा पाणा) वहाँ जो वे त्रस-स्थावर प्राणी, जो श्रावक द्वारा ग्रहण की हुई क्षेत्र मर्यादा से बाहर दूरवर्ती अथवा अन्य देश में रहने वाले हैं (जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्त) जिनको श्रावक ने व्रतारम्भ से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग कर दिया है (ते तओ आउ विप्पजहंति) वे प्राणी (बस-स्थावर प्राणी) अपनी उस आयु को छोड़ देते हैं (विप्पजहित्ता) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498