Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 488
________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय सभी स्थावर एक ही काल में त्रस हो जायें, ऐसा कभी नहीं होता। ऐसा त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है कि एक प्रत्याख्यान करने वाले श्रावक को छोड़कर बाकी के नारक, देव, मनुष्य तथा द्वीन्द्रियादि तिर्यञ्च का सर्वथा अभाव हो जाए । प्रत्याख्यानी श्रावक का प्रत्याख्यान तभी निर्विषय हो सकता है, यदि प्रत्याख्यानी श्रावक के जीवन काल में ही सभी नारक आदि स प्राणी उच्छिन्न हो जाएँ । मगर पूर्वोक्त रीति से यह बात सम्भव नहीं है । तथा स्थावर प्राणी अनन्त हैं, और अनन्त स्थावर प्राणियों का असंख्यात तस प्राणियों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है, यह बात अति प्रसिद्ध है । इस प्रकार जब कि त्रस और स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन नहीं होते, तब आप या दूसरे लोगों का यह कहना कि 'इस जगत में ऐसा एक भी पर्याय नहीं है, जिनमें श्रावक का एक भी बस के विषय में दण्ड देना वर्जित किया जा सके, सर्वथा युक्तिविरुद्ध है, न्यायसंगत नहीं है । मूल पाठ भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मन्त्र ति आगमित्ता णाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चारितं, पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासइ मित्ति मन्नति, आगमित्ता णाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चारितं पावाणं कम्माणं अकरणधाए से खलु पर लोगविसुद्धीए चिट्ठइ । तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिस पाउब्भूए, तामेव दिस पहारेत्थ गमणाए । ४४७ भगवं च णं उदाहु - आउसंतो उदगा ! जे खलु तहाभूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणे सो वि तावतं आढाइ परिजाणेइ, वंदइ नमंसइ सक्कारेइ संमाणेइ जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । तणं से उदए पेडालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी - एएसि णं भंते ! पदाणं पुव्वि अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं अदिट्ठाणं असुयाणं अमुयाणं अविन्नायाणं अव्वोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिट्ठाणं अणिबूढाणं अणुवहारियाणं एयमट्ठ णो सद्दहियं णो पत्तियं, णो रोइयं । एएसि णं भंते! पदाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवाहरणयाए, एमट्ठ सहामि पत्तियामि, रोएमि, एवमेव से जहेयं तुम्भे वयह। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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