Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 493
________________ ४५२ सूत्रकृतांग सूत्र आयुष्मन् उदक ! जो साधक वैसे तो सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र को प्राप्त करके कर्मक्षय करने में अहर्निश प्रवृत्त है, तथा पापकर्मों को न करने में संलग्न है, सुविहित साधुओं के साथ औपचारिकरूप से मंत्री रखता है, किन्तु अपनी क्षुद्र एवं अभिमानी प्रकृति के कारण पण्डित न होने पर भी अपने आपको पण्डित मानने वाला, वह साधक यदि शास्त्रोक्त आचार का परिपालन करने वाले उत्तम विचारक श्रमणों या उत्तम ब्रह्मचर्य से युक्त माहनों की निन्दा करता है, उन पर झूठे आक्षेप लगाकर उन्हें बदनाम करता है, लोगों की नजरों में उन्हें गिराना चाहता है, तो वह सुगतिस्वरूप परलोक तथा उसके कारणस्वरूप सुसंयम का अवश्य ही विनाश कर डालता है । इसके विपरीत जो साधक सुचारित्रवान् साधुओं के साथ हार्दिक मंत्री रखता है सम्यग्दर्शन -ज्ञान- चारित्र सम्यक् आराधना करके कर्मों को विनष्ट करने में अहनिश प्रवृत्त है, वह महासत्त्वसम्पन्न, उदारहृदय तथा समुद्र के समान गम्भीर साधक तथारूप उत्तम श्रमणों तथा माहनों की निन्दा नहीं करता, उन्हें बदनाम करने तथा लोगों की दृष्टि में उन्हें नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करता, वह साधक पर निन्दा के त्याग के कारण परलोक की विशुद्धि यानी अपने अशुभ कर्मों का क्षय करने में समर्थ होता है । श्री गौतम स्वामी के द्वारा इस प्रकार परनिन्दा का, विशेषरूप से चारित्र सम्पन्न साधुओं की निन्दा या आक्षेप द्वारा बदनाम करने का त्याग और यथार्थ वस्तुस्वरूप का कथन उदक निर्ग्रन्थ की आँखें खोलने वाला था । स्वाभिमानी उदक निर्ग्रन्थ ने इसे अपने प्रति श्री गौतमस्वामी का व्यंग्यात्मक या आक्षेपात्मक कथन समझा, इसे सुनते ही उदक निर्ग्रन्थ के कान खड़े हो गये और उनकी बात की उपेक्षा करके वह जहाँ से आया था वहीं वापस लौटने के लिए उतावला हो गया । किन्तु महाज्ञानी एवं आकृति मनोविज्ञान में दक्ष श्री गौतम स्वामी ने उदक निर्ग्रन्थ की चेष्टाओं एवं मनोभावों को जानकर उदक से धर्म स्नेहपूर्वक कहा - आयुष्मन् उदक ! मेरी एक हितकर बात सुन लो, फिर तुम्हें जो कुछ करना हो सो करना । बात यह है कि श्रेष्ठ पुरुषों का यह परम्परागत आचार रहा है कि जो व्यक्ति किसी भी तथारूप सुचारित्र श्रमण या माहन से एक भी आर्य (संसारसागर से पार उतारने वाला), धार्मिक एवं परिणाम में हितकर सुवचन सुनकर उसे हृदयंगम करता है, और अपनी सूक्ष्म विश्लेषणकारिणी प्रज्ञा से उस पर चिन्तन करके जब अपने दिल - दिमाग में यह तौल लेता है कि मुझे इस परम हितैषी पुरुष ने सर्वोत्तम कल्याणकारी योगक्षेम रूप पद को उपलब्ध कराया है, तो उस योगक्षेम पद के उपदेशक के प्रति कृतज्ञ होकर उनका उपकार मानता है । जो वस्तु प्राप्त नहीं हैं, उसे प्राप्त करने के उपाय को 'योग' कहते हैं और जो प्राप्त है, उसकी रक्षा के उपाय को 'क्षेम' कहते हैं । जिसके द्वारा 'योग' और 'क्षेम' होते हों, उस पद को योगक्षेमरूप पद कहते हैं । श्री गौतम स्वामी द्वारा इस योगक्षेमरूप पद को प्राप्त करने का माहात्म्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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