Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
३१८
सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
जीव और अजीव के अस्तित्व का यथार्थ ज्ञान
तेरहवीं गाथा में शास्त्रकार ने जीव और अजीव दोनों पदार्थों के अस्तित्व का प्रतिपादन किया गया है ।
पंचमहाभूतवादी का कथन है --जीव नामक कोई पदार्थ नहीं है। चलना, फिरना, सोना, जागना, उठना, बैठना, सुनना आदि सभी कार्य शरीर के रूप में परिणत पाँच महाभूतों द्वारा ही किये जाते हैं। क्योंकि चैतन्यरूप गुण शरीर के रूप में परिणत पाँच महाभूतों का ही गुण है । अतः शरीर में चैतन्य गुण को देखकर उसके गुणी अप्रत्यक्ष आत्मा की कल्पना भूल है। यह नास्तिक मत है। आत्माद्वैतवादी (वेदान्ती) कहते हैं—यह समस्त जगत् एक आत्मा (ब्रह्म) का परिणाम है । जो पदार्थ हो चुके हैं, जो हैं और जो होंगे, वे सभी एक आत्मा के कार्य हैं। इस कारण सभी एक आत्मस्वरूप हैं। एक आत्मा से भिन्न दूसरा कोई भी पदार्थ जगत में नहीं है । चेतन और अचेतन जो कुछ भी पदार्थ दिखाई देते हैं, सभी आत्मस्वरूप हैं । अतः आत्मा से भिन्न जीव और अजीव आदि पदार्थों को मानना भूल है। यह आत्मा तवादियों का मन्तव्य है।
परन्तु जैनदर्शन इन दोनों मतों को अयुक्त बतलाता है। उसका मन्तव्य यह है कि उपयोग लक्षण वाले जीवों का अस्तित्व नहीं है अथवा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, पुद्गल और कालरूप अजीवों का अस्तित्व नहीं है, विवेकी साधकों को इस प्रकार की प्ररूपणा, बुद्धि या मान्यता कदापि नहीं करनी चाहिए। अपितु ये दोनों ही पदार्थ हैं, यही बात माननी और कहनी चाहिए । जीव एक स्वतन्त्र
और अनादि पदार्थ है, वह पंचमहाभूतों का कार्य नहीं है। क्योंकि पंचमहाभूत जड़ हैं, उनसे चैतन्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । तथा वे पंचमहाभूत जड़ होने के कारण किसी की प्रेरणा के बिना शरीर के आकार में परिणत भी नहीं हो सकते । एवं वे पंचमहाभूत अगर अपने में अविद्यमान चैतन्य की उत्पत्ति करते हैं, तो वे नित्य नहीं कहे जा सकते । जो वस्तु सदा एक स्वभाव में रहती है, वहीं नित्य कहलाती है। अतः पहले से विद्यमान चैतन्य की उत्पत्ति पाँच महाभूतों से मानें, तब तो यह एक प्रकार से जीव को ही मान लेना हुआ । क्योंकि वह चैतन्य पहले से विद्यमान होने के कारण नवीन उत्पन्न नहीं हुआ। यह चैतन्यगुण (धर्म) पंचमहाभूतों का नहीं है । यदि चैतन्य पंचमहाभूतों का धर्म होता तो पंचभूतों से निर्मित घट, पट आदि में भी चैतन्य की उपलब्धि होती, मगर घट-पटादि में चैतन्य की उपलब्धि या अनुभूति होती नहीं । अतः पंचमहाभूतवादी नास्तिकों का सिद्धान्त यथार्थ नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org