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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
सारांश
कोई पुरुष एकान्ततः कल्याणवान् या पापवान् है, ऐसा व्यवहार नहीं होता, फिर भी जो शाक्य आदि श्रमण बालपण्डित हैं, वे एकान्त पक्ष का अवलम्बन लेने से उत्पन्न होने वाले वैर अर्थात् कर्मबन्धन को नहीं जानते ।
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मूल पाठ
असे अक्खयं वाsवि, सव्वदुक्खेति वा पुणो ।
वज्झा पाणा न वज्झत्ति, इति वायं न नीसरे ॥ ३० ॥ संस्कृत छाया
अशेषमक्षयं वाऽपि सर्वदुखमिति वा पुनः ।
,
वध्याः प्राणाः न वध्या इति, इति वाचं न निःसृजेत् ॥ ३० ॥ अन्वयार्थ
(असेसं अक्खयं वावि) जगत् के समस्त पदार्थ एकान्त नित्य हैं, अथवा एकान्त अनित्य हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए। (पुणो सव्वदुक्खेति ) तथा समस्त जगत् एकान्त रूप से दुःखमय है, यह भी नहीं कहना चाहिए। ( वज्झा पाणा अवज्झा इति वायं न नीसरे ) तथा अपराधी प्राणी वध्य हैं या अवध्य हैं, यह वचन साधु न कहे ॥ ३० ॥
व्याख्या
एकान्त नित्य या अनित्य कहना ठीक नहीं इस गाथा में शास्त्रकार तीन बातों के सम्बन्ध में एकान्त वचन का निषेध करते हैं - (१) जगत् के सभी पदार्थ एक न्ततः नित्य या अनित्य हैं, (२) सारा जगत् एकान्ततः दुःखरूप है, (३) अमुक प्राणी वध्य है या अवध्य है ? वास्तव में इस गाथा में साधु को अनेकान्तात्मक वचन कहने का उपदेश दिया गया है ।
सांख्यमतवादी कहते हैं— जगत् के समस्त पदार्थ एकान्त नित्य परिवर्तन नहीं होता । परन्तु यह कथन यथार्थ नहीं हैं, क्योंकि जगत् के प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं । कोई भी वस्तु सदा एक-सी अवस्था में नहीं रहती । जैसे नखों और केशों को काट लेने पर फिर नये उत्पन्न हुए नखों और केशों को तुल्य जानकर ये वे ही नख या केश हैं, इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है । इसी तरह समस्त पदार्थों की तुल्यता को देखकर ये वे ही पदार्थ हैं, ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है । लेकिन इस प्रत्यभिज्ञान को लेकर वस्तुओं में अन्यथाभाव ( परिवर्तन ) न मानना तथा उन्हें एकान्त नित्य कहना मिथ्या है ।
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। उनमें कोई
सभी पदार्थ
इसी तरह जगत् के समस्त पदार्थों को बौद्धों की तरह एकान्त क्षणिक ( अनित्य ) भी नहीं कहना चाहिए | क्योंकि बौद्ध पूर्वपदार्थ का एकान्त नाश और उत्तर पदार्थ
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